शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC)


राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC)

भारत के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में उन भारतीय नागरिकों के नाम हैं, जो असम में रहते हैं। असम भारत का पहला ऐसा राज्य है जिसके पास राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) है। इसे पहली बार भारत की जनगणना 1951 के बाद 1951 में तैयार किया गया था। असम में जनगणना के दौरान वर्णित सभी व्यक्तियों के विवरणों के आधार पर यह रजिस्टर तैयार किया गया था। असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) को पिछली बार 1951 में अद्यतन किया गया था, उस समय असम में कुल 80 लाख नागरिकों के नाम इस रजिस्टर में पंजीकृत किए गये थे।

1979 में अखिल आसाम छात्र संघ (AASU) द्वारा अवैध आप्रवासियों की पहचान और निर्वासन की मांग करते हुए एक 6 वर्षीय आन्दोलन चलाया गया था। यह आन्दोलन 15 अगस्त, 1985 को असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद समाप्त हुआ था।

बांग्लादेश की स्थापना 25 मार्च 1971 को हुई थी और भारतीय कानून में यह तय किया गया कि जो लोग असम में बांग्लादेश बनने के पहले (25 मार्च 1971 के पहले) आए थे और रह रहे हैं, केवल उन्हें ही भारत का नागरिक माना जाएगा।

नागरिकता हेतु प्रस्तुत लगभग दो करोड़ से अधिक दावों की जाँच पूरी होने के बाद न्यायालय द्वारा राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के पहले मसौदे को 31 दिसंबर 2017 तक प्रकाशित करने का आदेश दिया गया था। इन दो करोड़ से अधिक दावों में से लगभग 38 लाख लोग ऐसे भी थे, जिनके द्वारा प्रस्तुत दस्तावजों पर संदेह था या उनके दस्तावेजों में कुछ कमी थी या वे मांगे गए दस्तावेज प्रस्तुत नहीं कर पाए। 31 दिसंबर 2017 को बहु-प्रतीक्षित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) का पहला ड्राफ्ट प्रकाशित किया गया। कानूनी तौर पर भारत के नागरिक के रूप में पहचान प्राप्त करने हेतु असम में लगभग 3.29 करोड आवेदन प्रस्तुत किये गए थे, जिनमें से कुल 1.9 करोड़ लोगों के नाम को ही इसमें शामिल किया गया है।

असम एक सीमावर्ती राज्य होने के नाते असम में अवैध आव्रजन की अनूठी समस्याएं रहती हैं। 1951 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 1951 में राज्य के लिए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) बनाया गया था। लेकिन बाद में इसका उचित रख-रखाव नहीं किया गया। 1983 में अवैध प्रवासी (न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारण) अधिनियम को संसद द्वारा पारित किया गया था ताकि असम में अवैध प्रवासियों की पहचान के लिए एक अलग न्यायाधिकरण प्रक्रिया बनाई जा सके। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2005 में इसे असंवैधानिक करार दिया, जिसके बाद भारत सरकार ने असम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को अद्यतन करने पर सहमति व्यक्त की। एक दशक में अद्यतन प्रक्रिया पर असंतोषजनक प्रगति के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में प्रक्रिया का निर्देशन किया और उस पर निगरानी शुरू की। असम के लिए अंतिम अद्यतित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) 31 अगस्त 2019 को प्रकाशित हुई, जिसमें 3.3 करोड़ आबादी में से 3.1 करोड़ नाम थे, जिसमें लगभग 19 लाख आवेदक शामिल थे अर्थात् लगभग 19 लाख लोग रजिस्टर में अपना नाम नागरिक के तौर पर नहीं लिखवा सके।

सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) को पूरे भारत में लागू करने का वादा किया है, लेकिन असम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया। अब भी यह आशंका है कि कई वैध नागरिक बाहर रह गए, जबकि अनेक अवैध प्रवासी शामिल हो गए।

पिछले दिनों फेसबुक पर दीपक असीम की एक पोस्ट दिनांक 16 अक्टूबर (लिंक - https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1276148229226680&id=100004945449390) पढ़ने को मिली, जो यह कहती है कि एनआरसी हमारी बहुत बड़ी गलती है। आप यह पोस्ट फेसबुक पर पढ़ सकते हैं, फिर भी जागरूकता के लिए इसके कुछ अंश नीचे दिए जा रहे हैं -

"मृणाल तालुकदार, असम के जाने-माने पत्रकार, ने अपनी सारी जवानी असम से घुसपैठियों को निकालने की मुहिम में लगा दी हो और अंत में वही निराश होकर कहे कि हमने एक पागलपन में जिंदगी बर्बाद कर दी। एनआरसी पर इनकी लिखी किताब 'पोस्ट कोलोनियल असम' का विमोचन' चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने दिल्ली में किया था । इनकी दूसरी किताब,जिसका नाम है - 'एनआरसी का खेल' कुछ दिनों बाद आने वाली है। वह एनआरसी मामले में केंद्र सरकार को सलाह देने वाली कमेटी में भी नामित हैं। वे आल असम स्टूडेंट यूनियन (आसु) से जुड़े रहे।

उन्होंने कहा - मेरी और मेरे जैसे हजारों लोगों की जवानी असम से घुसपैठियों को निकालने कि आंदोलन की भेंट चढ़ गई। हममें जोश था, मगर होश नहीं था। पता नहीं था कि हम जिनको असम से बाहर निकालने के लिए आंदोलन कर रहे हैं, उन्हें किस तरह पहचाना जाएगा और उन्हें बाहर करने की प्रक्रिया क्या होगी। 1979 में हमारा आंदोलन शुरू हुआ और 1985 में हम ही असम की सरकार थे। प्रफुल्ल महंत हॉस्टल में रहते थे हॉस्टल से सीधे सीएम हाउस में रहने पहुंचे। 5 साल कैसे गुजर गए हमें पता ही नहीं चला। राजीव गांधी ने सही किया कि हमें चुनाव लड़ा कर सत्ता दिलवाई। सत्ता पाकर हमें एहसास हुआ कि सरकार के काम और मजबूरियां क्या होती हैं। अगला चुनाव हम हारे मगर 5 साल बाद फिर सत्ता में आए। इन दूसरे 5 सालों में भी हमें समझ नहीं आया कि बांग्लादेशियों को पहचानने की प्रक्रिया क्या हो। लोग हमसे और हम अपने आप से निराश थे। मगर घुसपैठियों के खिलाफ हमारी मुहिम जारी थी। बहुत बाद में हमें इसकी प्रक्रिया सुझाई भारत के होम सेक्रेटरी रहे गोपाल कृष्ण पिल्लई ने। उन्होंने हमें समझाया कि आप सब की नागरिकता चेक कराओ। अपने आप की भी नागरिकता चेक कराओ और जो रह जाएं वह बाहरी।

चोर को पकड़ने के लिए क्लास रूम में सभी की तलाशी लेने वाला यह आइडिया हमें खूब जँचा, मगर तब नहीं मालूम था कि सवा तीन करोड़ लोग जब कागजों के लिए परेशान इधर-उधर भागेंगे तब क्या होगा? बाद में रंजन गोगोई ने कानूनी मदद की और खुद इसमें रुचि ली। इसमें असम के एक शख्स प्रदीप भुइँया की खास भूमिका रही। वे स्कूल के प्रिंसिपल हैं उन्होंने ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की और अपनी जेब से 60 लाख खर्च किए। बाद में उन्हीं की याचिका पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट एनआरसी के आदेश दिए एक और शख्स अभिजीत शर्मा ने भी एनआरसी के ड्राफ्ट को जारी कराने के लिए खूब भागदौड़ की। तो इस तरह एनआरसी वजूद में आया और वजूद में आते ही हम सब सोचने लगे कि यह हमने क्या कर डाला?

खुद हमारे घर के लोगों के नाम गलत हो गए। सोचिए कैसी बात है कि जो लोग घुसपैठियों को बाहर निकालने के लिए आंदोलन कर रहे हैं, उन्हीं के घर वालों के नाम एनआरसी की लिस्ट में नहीं आएं? बहरहाल यह गलतियां बाद में दूर हुईं। बयालीस हज़ार कर्मचारी 4 साल तक करोड़ों कागजों को जमा करते रहे और उनका वेरिफिकेशन चलता रहा। आसाम जैसे पागल हो गया था। एक एक कागज की पुष्टि के लिए दूसरे राज्य तक दौड़ लगानी पड़ती थी। जैसे किसी के दादा 1971 के पहले राजस्थान के किसी स्कूल में पढ़े तो उसे दादा का स्कूल सर्टिफिकेट लेने के लिए कई बार राजस्थान जाना पड़ा। लोगों ने लाखों रुपया खर्च किया। सैकड़ों लोगों ने दबाव में आत्महत्या कर ली। कितने ही लाइनों में लगकर मर गए। कितनों को ही इस दबाव में अटैक आया दूसरी बीमारियां हुई। मैं कह नहीं सकता कि हमने अपने लोगों को कितनी तकलीफ दी। और फिर अंत में हासिल क्या हुआ? पहले चालीस लाख लोग एनआरसी में नहीं आए। अब 19 लाख लोग नहीं आ रहे हैं। चलिए मैं कहता हूं अंत में पांच लाख या तीन लाख लोग जाएंगे तो हम उनका क्या करेंगे? हमने यह सब पहले से नहीं सोचा था। हमें नहीं पता था कि यह समस्या इतनी ज्यादा मानवीय पहलुओं से जुड़ी हुई है। मुझे लगता है की हम इतने लोगों को ना वापस बांग्लादेश भेज सकेंगे न जेल में रख सकेंगे और ना ही इतने लोगों को ब्रह्मपुत्र में फेंका जा सकता है। ....." (साभार - दीपक असीम की फेसबुक पोस्ट दिनांक 16 अक्टूबर 2019 - https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1276148229226680&id=100004945449390)

केंद्र सरकार पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) लाने की बात कर रही है, जबकि उसे असम का अनुभव हो चुका है। असम के अनुभव के बाद देश के गृह मंत्री अमित शाह संसद में कहते हैं कि अब पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) लाया जाएगा। लगता है कि सरकार अपने ही नागरिकों को डराने की बात सोच रही है। यदि कोई नागरिक अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए आवश्यक दस्तावेज नहीं जुटा पाया तो उसका क्या होगा? क्या उसे यह देश छोड़ना होगा? वह कहाँ जाएगा? ऐसे बहुत से अनुत्तरित प्रश्न हैं, जो भारतीय नागरिकों के मन में डर पैदा कर रहे हैं।

वे चाहते हैं कि नागरिकों को डरते रहना चाहिए
और
साथ ही उन्हें व्यस्त भी रहना चाहिए।

नागरिकों का डरते रहना और व्यस्त रहना
बढ़ती बेरोजगारी
और
बिगड़ती अर्थव्यवस्था में कैसे होगा?
यह
'नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर'
को पूरे देश में लागू कर आसानी से किया जा सकेगा।

लोग रजिस्टर में अपना नाम लिखाने के लिए
डरते रहेंगे,
डाक्यूमेंट्स ढूंढने में व्यस्त रहेंगे
और
लाइनों में खड़े रहेंगे,
इस प्रकार
रोजमर्रा के मुद्दे भूल जाएंगे।

राज्यसभा में नागरिकता संशोधन अधिनियम पारित हो जाने के बाद देश के विभिन्न भागों में नागरिकता संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के खिलाफ विरोध प्रदर्शन प्रारम्भ हो गए। इसका मुख्य कारण संभवतः 11 दिसंबर 2019 को राज्यसभा में गृहमंत्री की वह घोषणा रही, जिसमें उन्होंने कहा कि एनआरसी आएगा। गृह मंत्री के बयान के बाद लोगों में डर पैदा हुआ कि यदि एनआरसी लागू हुआ तो दस्तावेजों की अनुपलब्धता और जांच प्रक्रिया की खामियों की वजह से करोड़ों लोगों की नागरिकता छिन सकती है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने इस सम्बन्ध में कहा कि देश में एनआरसी नहीं लाया जा रहा है, पर गृह मंत्री अमित शाह के बयानों ने भ्रम पैदा किया। नागरिकता संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के खिलाफ देश भर में फैले विरोध को शांत करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार 22 दिसंबर 2019 को आयोजित भाजपा की रैली में पहली बार अपनी चुप्पी तोड़ी और कहा कि नागरिकता संशोधन अधिनियम से भारत के किसी मुस्लिम नागरिक को कोई खतरा नहीं हैं और जहाँ तक राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का सवाल है तो अभी तक सरकार ने इसका कोई खाका ही नहीं खींचा है। प्रधानमंत्री ने गृहमंत्री के संसद में दिए बयान पर कोई टिप्पणी भी नहीं की और यह भी नहीं कहा कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर नहीं आएगा। देशभर में सरकार द्वारा अखबारों में दिए विज्ञापन (स्रोत - दैनिक नवज्योति, दिनांक 24 दिसंबर 2019) में यह कहा गया है कि यह गलत अफवाह है कि ऐसे दस्तावेज जिनसे नागरिकता प्रमाणित होती हो, उन्हें अभी जुटाने होंगे अन्यथा लोगों को निर्वासित कर दिया जाएगा। साथ ही विज्ञापन में सरकार की ओर से भरोसा दिलाया गया कि किसी राष्ट्रव्यापी एनआरसी की घोषणा नहीं की गई है। अगर कभी इसकी घोषणा की जाती है तो ऐसी स्थिति में नियम और निर्देश ऐसे बनाए जाएंगे ताकि किसी भी भारतीय नागरिक को परेशानी न हो। प्रधानमंत्री का बयान और सरकार द्वारा अखबारों में दिए विज्ञापन से ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार ने फिलहाल कुछ समय के लिए एनआरसी के विषय को त्यागने का मानस बनाया है। लेकिन आगे क्या होगा, यह भविष्य के गर्भ में है। दिनांक 4 फरवरी 2020 को लोकसभा में मोदी सरकार की तरफ से एक बयान आया, जिसमें कहा गया है कि देशभर में एनआरसी नहीं लागू होगा। संसद सत्र के चौथे दिन लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने जवाब दिया कि सरकार ने एनआरसी को लेकर अब तक कोई फैसला नहीं लिया गया है। अभी देश भर में एनआरसी लागू करने का कोई विचार नहीं है।

जय हिन्द! जय भारत!

- केशव राम सिंघल
(नोट - लेख का अंतिम पैरा बाद में जोड़ा गया।)

(अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का प्रयास, चाहे वे आपके विचारों से भिन्न ही क्यों ना हों .... पाठकों की टिप्पणी का स्वागत है, पर भाषा शालीन हो, इसका निवेदन है।)

बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

*गांधीजी*


*गांधीजी*

गांधीजी को सशरीर मैंने देखा नहीं। मेरा जन्म 1951 में हुआ था और गांधीजी की ह्त्या मेरे जन्म से पहले 30 जनवरी 1948 को हुई थी। वैसे भी गांधीजी को सशरीर देखने वाले लोग अब बहुत कम होंगे। आजादी के बाद जन्म लेने वाले लोगों के लिए गांधीजी एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते हैं। एक विचार और एक दर्शन के रूप में गांधीजी को हमने पढ़ा है। मूर्तियों, स्मारकों, चित्रों, लाठी और चश्मे जैसे प्रतीकों से गांधीजी की पहचान हमसे कराई जाती रही। गांधीजी के विचारों का भारतीय समाज और इसकी मिली-जुली, साझा संस्कृति से गहरा और न टूटने वाला रिश्ता रहा है। गांधीजी ने अपने जीवनकाल में अपने विचारों को बोलकर या लिखकर अभिव्यक्त किया। उनका बोला और लिखा साहित्य पचास हजार पृष्ठों से भी अधिक का है।

गांधीजी भारत को आतंरिक भेदभावों से मुक्त कर आजाद मुल्क में समानता, समान अवसर और समान हैसियत वाले समाज की संरचना का सपना देखा करते थे। वे महिलाओं को बराबरी का हक़ और सम्मान देने के पक्ष में थे। वे धार्मिक घृणा-द्वेष का अंत चाहते थे। वे छुआछूत और गैर-बराबरी की कालिख से मुक्ति चाहते थे। आज भी गांधीजी एक विचार और एक दर्शन के रूप में पूरे विश्व में छाए हुए हैं।

इतिहास के कुछ गिने-चुने व्यक्तियों में से गांधीजी एक ऐसी शख्सयत थे, जिन्होंने नैतिक, धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मोर्चों पर एक साथ अहिंसक लड़ाईयाँ लड़ी। वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किए जाते हैं, जिनके बारे में विश्व की लगभग सभी भाषाओं में सबसे अधिक लिखा गया है और लिखा जा रहा है। गांधी जी आज भी प्रासंगिक हैं। अहिंसा पर उनके विचारों के कारण ही संयुक्त राष्ट्र ने गांधीजी के जन्मदिन दो अक्टूबर को 'अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस' घोषित किया है।

इतिहास गवाह है कि अधिकतर सत्ताधीश तानाशाह बल और हिंसा द्वारा अपने अस्तित्व और अपनी सत्ता को बचाए रखने की कोशिश करते रहे हैं। बल और हिंसा के उलट गांधीजी ने जीवन के सभी पहलुओं में अहिंसा और नैतिकता का उपयोग करना सिखाया। गांधीजी के अनुसार, "प्राणीमात्र के प्रति समभाव या अनुकूल भाव न रखना हिंसा है। .... किसी का खून करना यह तो हिंसा है ही, किन्तु किसी मनुष्य के श्रम का नाजायज लाभ उठाना भी हिंसा है। .... किसी का बुरा होने की इच्छा करना भी हिंसा है।" वे कहते थे, "अहिंसा के बिना सत्य ढूंढना असंभव है। अहिंसा साधन है। साधन सदा अपने हाथ में होता है। उसका उपयोग करने का दायित्व हम पर होता है।"

1909 में जब गांधीजी लन्दन से अफ्रीका समुद्र के रास्ते जहाज से यात्रा कर रहे थे, तब उन्होंने गुजराती में 'हिन्द स्वराज' नामक एक छोटी सी पुस्तिका लिखी थी। 110 वर्ष पुरानी इस पुस्तिका में व्यक्त विचार आज भी उपयोगी और प्रासंगिक लगते हैं। वे कहते थे, "हमारा उद्देश्य चाहे कितना भी महान हो, लेकिन उसे प्राप्त करने का तरीका अगर गलत हो तो उसका परिणाम अवश्य दुःखदायी होगा।" 'हिन्द स्वराज' पुस्तक द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह बलिदान की बात रखती है और पशुबल से मुकाबला करने के लिए आत्मबल को महत्व देती है।

दकियानूसी विचारों की वजह से बहुत से लोग पुरानी परम्पराओं को बिना सोचे-समझे अपना लेते हैं और उनमें ऐसे फंस जाते हैं कि उन परम्पराओं के अलावा उन्हें बाहर की दुनिया दिखती नहीं। इस सम्बन्ध में चेतावनी देते हुए गांधीजी अपने विचार रखते कि परम्परा के पानी में तैरना अच्छी बात है, लेकिन उसमें डूब जाना आत्महत्या है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दकियानूसी विचारों को गांधीजी ने मान्यता नहीं दी, इसके उलट गांधीजी आधुनिक विचारों के प्रणेता रहे।

गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका के अपने प्रवास के दौरान दासता और दमन की जंजीरों के बीच 'स्वतंत्रता और स्वाभिमान' का पाठ सीखा, जिससे उनमें आत्म-बोध और आत्म-बल उत्पन्न हुआ। 1919 में जलियांवाला बाग़ में हो रही विरोधसभा में अंग्रेजों के अत्याचार और नरसंहार ने गांधीजी की अंतरात्मा को हिलाकर रख दिया था और उसके बाद वे समूचे स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभाल खुलम-खुल्ला स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में कूद पड़े थे।

गांधीजी के विचार और विचारधारा हर जगह लागू हो सकते हैं, जीवन में और प्रशासन में, लेकिन दुःख है कि ऐसा नहीं हो रहा। गांधीजी की विचारधारा में निरंतरता है और एक ऐसे समय में जब असहिष्णुता और चरमपंथी विचारधाराएं सामने दिख रही हैं, पूरी दुनिया में गांधीजी के विचारों की स्वीकार्यता बढ़ रही है।

- केशव राम सिंघल