बुधवार, 28 जून 2023

समान नागरिक संहिता - 1

समान नागरिक संहिता - 1

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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 भारत के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। यह मौलिक अधिकार यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी आधार पर भेदभाव किए बिना अपनी पसंद के किसी भी धर्म को मानने की आजादी है। अनुच्छेद 25 में 'सभी व्यक्तियों' पद का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है कि धार्मिक स्वतंत्रता भारत के नागरिकों के साथ-साथ यह अधिकार विदेशियों को भी मिलता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 के मुताबिक, "राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।" यानी संविधान सरकार को सभी समुदायों को उन मामलों पर एक साथ लाने का निर्देश दे रहा है, जो वर्तमान में उनके संबंधित व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित हैं। इस प्रकार देखा जाए तो भारतीय संविधान समान नागरिक संहिता लाने के बारे में कहता है।












समान नागरिक संहिता का विरोध करने वालों का मानना है कि सभी धर्मों के लिए समान कानून के साथ धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार और समानता के अधिकार के बीच संतुलन बनाना मुश्किल होगा। इसके चलते धर्म या जातीयता के आधार पर कई व्यक्तिगत कानून भी संकट में आ जाएँगे। विशेषकर मुस्लिम समुदाय के लोग समान नागरिक संहिता का विरोध इस तर्क के आधार पर करते हैं कि शरिया कानून 1400 साल पुराना है। यह कानून कुरआन और पैगम्बर साहब की शिक्षाओं पर आधारित है। उनके मुताबिक़ शरिया उनकी आस्था से जुड़ा मुद्दा है।


हमें समान नागरिक संहिता पर प्रगतिशील रूख अपनाना होगा। समान नागरिक संहिता का किसी धर्म विशेष के रीति-रिवाज और आचार-व्यवहार से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि समान नागरिक संहिता तो विभिन्न धर्म-समुदायों और किसी एक धर्म-समुदाय के लोगों के बीच बराबरी की संविधान सम्मत धारणा का सर्वोच्च प्रतिष्ठा का मामला है और यह धारणा लैंगिग न्याय को सुनिश्चित करती है।


समान नागरिक संहिता पर सियासी बहस चालू हो गई है। समान नागरिक संहिता का विरोध करना एक प्रकार से आत्मघाती कदम हो सकता है और यह राजनीतिक तौर पर अनेक दलों को नुकसान पहुँचा सकता है, जो इसका विरोध करेंगे। साल 2024 आ रहा है और राजनीतिक दलों को इसका विरोध करने से पहले कई बार सोचना चाहिए। समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे राजनीतिक तौर पर बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और यह एक व्यापक विषय है जिस पर विभिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं।


समान नागरिक संहिता की धारणा एक सीधे-सरल मगर ताकतवर तर्क पर टिकी है। यह तर्क कानून के समक्ष समानता का तर्क है। देश के सभी नागरिकों के सभी नागरिकों के लिए दंड-संहिता एक है तो सभी नागरिकों के लिए नागरिक संहिता भी एक समान होनी चाहिए। बेशक विभिन्न समुदाय के लोग अपने विभिन्न रीति-रिवाजों का पालन करें, लेकिन ऐसा तो नहीं होने दिया जा सकता न कि इन रीति-रिवाजों के पालन से व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन हो जाए। बेशक किसी समुदाय को धर्म और संस्कृति विषयक अधिकार हैं , लेकिन इन अधिकारों के तहत यह छूट कैसे दी जा सकती है कि वे उस समुदाय की औरतों को हासिल बराबरी के अधिकार का उल्लंघन करें। समान नागरिक संहिता के पक्ष में यह बताया जाता है कि यह सभी नागरिकों को न्याय, समानता और अधिकारों का एक समान मानदंड प्रदान करेगी। यह संविधानिक गारंटी के रूप में अद्यतित किया जाएगा और लोगों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक अधिकारों का अधिक आनंद उठाने में मदद करेगा। इसके माध्यम से, भारत में विभिन्न ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लोगों को समानता और न्याय की पहुँच मिलेगी।


भारत में नारीवादी आंदोलन ने कई बार समान नागरिक संहिता की माँग की है। जैसे तीन तलाक के मामले में विपक्ष फँस गया, उसी प्रकार समान नागरिक संहिता के मामले में विपक्ष फँसता नजर आ रहा है।


नागरिक संहिता के समान होने का अर्थ यह कतई नहीं है कि उसे सबके लिए एक-रूप और एक-रंग का होना चाहिए। समान नागरिक संहिता समान सिद्धांत पर आधारित हो सकती है, साथ ही उसमें रंग-रूप का वैविध्य भी हो सकता है। समान नागरिक संहिता में समान का अर्थ होगा - सभी धार्मिक और सामाजिक समुदायों के लिए एक रूप संवैधानिक सिद्धांत को अमल में लाना। किसी भी समुदाय से सम्बंधित पारिवारिक कानून को इस बात की इजाजत नहीं होगी कि वह समानता के अधिकार, भेदभाव के विरुद्ध अधिकार तथा लैंगिक न्याय की धारणा का उल्लंघन करे। जो कोई रीति-रिवाज या पारिवारिक कानून इन सिद्धांतों के उल्लंघन में है, उन्हें ख़त्म किया जाना चाहिए। यही तो प्रगतिशील कदम होगा।


उदाहरण के लिए मुस्लिम समुदाय में शादी निकाहनामे पर आधारित एक अनुबंध होती है। समान नागरिक संहिता के लिए जरूरी नहीं कि मुस्लिम समुदाय अपनी इस प्रथा को त्याग दे। अलग-अलग समुदाय अपने अलग-अलग रीति-रिवाज का पालन करें। उदाहरण के लिए सिख समुदाय गुरुद्वारा में लावां और अर्दास पढ़कर विवाह आयोजित करें और हिन्दू हवन के साथ सात फेरे लेकर। केवल प्रमुख बात यह है कि ऐसे रीति-रिवाज अलग होते हुए भी संविधान सम्मत हो और किसी संविधान सम्मत अधिकार का उल्लंघन न करते हों। इस प्रकार समान नागरिक संहिता में भी अनेकता में एकता के दर्शन हो सकते हैं।


बहु-पत्नी विवाह प्राचीन ज़माने की परम्परा रही है। रामायण-महाभारत काल में और स्वतंत्रता से पूर्व हिन्दुओं में भी बहु-पत्नी विवाह होते थे, पर आज के समय में इसकी परम्परा नहीं है। आज के समय में समान नागरिक संहिता के तहत यदि सभी धर्मों के मानने वालों के लिए बहु-पत्नी विवाह समाप्त कर दिया जाए तो इससे कोई संविधान सम्मत अधिकार का उल्लंघन होगा, ऐसा नहीं लगता। सभी को समय के साथ बदलना चाहिए।


विपक्ष में समान नागरिक संहिता का विरोध करने के कई मुख्य तर्क हो सकते हैं। कुछ लोग समान नागरिक संहिता के प्रभाव को बाधाओं के रूप में देख सकते हैं, जैसे कि यह चुनावी रणनीतिक खेल बन सकता है और निरंतर राजनीतिक विवादों का कारण बन सकता है। समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले यह भी तर्क दे सकते हैं कि समान नागरिक संहिता विभिन्न सांस्कृतिक और सामाजिक संप्रदायों के बीच बाधाओं का कारण बन सकती है। समान नागरिक संहिता का विरोध करने वालों का कहना है कि समान नागरिक संहिता व्यक्तियों की धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करेगा और व्यक्तिगत कानूनों को प्रत्येक धार्मिक समुदाय के विवेक पर छोड़ देना चाहिए।


इस बात का ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि समान नागरिक संहिता को लेकर विचार करने से पहले हमें इसके विभिन्न पहलुओं का मूल्यांकन करना चाहिए। आवश्यकता है कि इस बारे में संगठित और सामरिक चर्चा हो, जिसमें विभिन्न राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएं, और नागरिक समुदायों के विचार और सुझाव समाहित हों। संविधानिक प्रक्रिया और सभी स्तरों पर समझौता और सहयोग द्वारा ही हम एक आपसी समझ और समानता के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं। सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि देश की धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता को ध्यान में रखते हुए समान नागरिक संहिता का ऐसा ड्राफ्ट सामने लाएँ, जो समान सिद्धांत पर आधारित हो, साथ ही उसमें रंग-रूप का वैविध्य भी हो। क्या सरकार ऐसा ड्राफ्ट सामने ला पाएगी?


आप इस बारे में क्या सोचते हैं? अपना विचार रखें।


- केशव राम सिंघल

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