बुधवार, 29 जून 2022

अतीत के मोती - एक लेखक - एक कहानी : पैसठ-सत्तर साल पहले लिखी एक कहानी - पुराना आदमी

अतीत के मोती - एक लेखक - एक कहानी

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पैसठ-सत्तर साल पहले लिखी एक कहानी -

पुराना आदमी

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उस दिन एक लम्बे अरसे के बाद गांगुली बाबू ने अपना वह कोट निकाला, जो तह करके पेटी में रख दिया गया था। पेटी में रखे-रखे उसमें शिकनें पड़ गयी थी। वह कोट उन्होंने पंद्रह वर्ष पहले, जब वह हरिद्वार की यात्रा पर गये थे, बीस रुपये में बना-बनाया खरीदा था।  उस कोट से वह कई सर्दियाँ काट चुके थे। सर्दियों के दिनों में वह कोट हमेशा उनके तन पर रहता था। जब जाड़े बीत जाते, तो उसे ता करके पेटी में रख दिया जाता।

 

हमेशा की तरह पिछली सर्दियों के ख़त्म होने पर उन्होंने यह कोट धुलवाकर पेटी में रख दिया था। लेकिन इन सर्दियों के आने से पहले ही उन्हें दफ्तर से अवकाश प्राप्त हो गया था। इसलिए वह कोट, जो जाड़े के दिनों में दफ्तर जाने के समय उनके शरीर पर होता, पेटी से निकाला ही नहीं गया था, जैसे अब उन्हें  उसकी आवश्यकता ही न पडी हो। किन्तु उस दिन उन्हें अपनी बिदाई की पार्टी में सम्मिलित होना था, इसलिए दफ्तर जाने से पहले वह अपना पुराना कोट पहने बिना नहीं रह सके। 

 

पहले हमेशा जब वह इसी प्रकार दफ्तर जाने के लिए तैयार बैठे रहते, श्रीमती गांगुली उन्हें पान का बीड़ा लाकर थमाती, और उनका पोता आकर उनकी टांगों से लिपट जाता और अपनी कोमल, मधुर भाषा में उन्हें उनका वादा याद दिलाते हुए कहता, बाबा, मेरे लिए मिठाई लाना न भूलना। और वह प्यार से बच्चे का मुँह चूमकर, मुस्कराकर कहते, हाँ-हाँ, बेटा, जरूर मिठाई लाऊँगा। और वह अपने काम पर चले जाते। 

 

उस दिन भी वह दफ्तर जाने की तैयारी में बैठे हुए थे। श्रीमती गांगुली हमेशा की तरह उनके लिए पान का बीड़ा बनाकर लाईन और एक तश्तरी में उनके सामने रख दिया। उन्होंने एक नजर उस पान के बीड़े की तरफ देखा, और फिर देखते ही रह गये। फिर उनकी नजरें कमरे में चारों ओर घूम गयीं कि कहीं से नटखट गोपाल निकल आय और उनके पैरों में लिपट जाय, वादा याद दिलाये और जिद करे। आज वह जीवन में अंतिम बार दफतर जा रहे हैं, आज वह उससे बहुत बड़ा वादा करेंगे, उसके लिए बहुत-सारी मिठाइयाँ लायेंगे। ,,,,,,, किन्तु उनकी नजरें चारों ओर भटक कर रह गयी। गोपाल कहीं भी नजर नहीं आया, न कहीं से उसके रोने-चिल्लाने की आवाज ही आती सुनाई दी। श्रीमती गांगुली ने टोका, तो अचानक उन्हें ख्याल आया, मैं भी कितना बड़ा बेवकूफ हूँ ! जिस गोपाल को आँखे यहां ढूँढ रही हैं, वह तो अपने बाप के साथ अलग रहता है। काश, उनका बेटा अलग न होता, बहु यही रहती , गोपाल यही रहता, गोपाल का बाप यही रहता, यह घर वीरान न होता। 

 

उन्होंने अपनी जेब घड़ी में समय देखा, सवा चार बज रहे थे। पाँच बजे उन्हें दफ्तर पहुँच जाना चाहिए, क्योंकि उन्हें बिदाई की पार्टी ठीक पाँच बजे दी जाने वाली थी।

 

वह जाने के लिए उठ खड़े हुए। तभी श्रीमती गांगुली उनसे बोली - अजी, क्या आज यह पुराना कोट पहनकर जाना आपके लिए जरूरी है?

 

- क्यों? - उनके मुँह से निकला और उन्होंने एक नजर अपने कोट पर डाली।  फिर बोले - क्या तुम्हें यह कोट अच्छा नहीं लगता? यह तो वही पुराना कोट है, जिसे मैं हमेशा सर्दियों में पहनकर दफ्तर जाया करता था।

 

- अब यह बहुत पुराना हो गया है।

 

- मैं भी तो अब बहुत पुराना हो गया हूँ। ,,,,,, क्या नया कोट पहन लेने से मैं नया आदमी बन जाऊँगा? - और वह जाने कैसी हँसी हँस पड़े।

 

- नहीं मैं यह नहीं कहती। ,,,, आज आप काम पर थोड़े ही जा रहे हैं, आप तो पार्टी में जा रहे हैं। क्या यह जरूरी है कि आप उसी पुराने कोट में जायँ ? वही पुराना कोट और वही पुरानी छतरी ! भला संध्या के समय भी कोई छतरी लेकर चलता है और अभी सर्दी भी कहाँ शुरू हुई हैं ! इस कोट और छतरी के बिना क्या लोग आपको पहचानने में भूल कर बैठेंगे?

 

गांगुली बाबू हँसे। शांतिपूर्वक बोले - हाँ, भाई, यह भी हो सकता है। अगर अपनी पुरानी वेश-भूषा में नहीं गया, तो संभव है, मेरे साथी मुझे पहचानने में भूल कर बैठे। किरानी बनकर कभी दफ्तर में गया था, और किरानी ही रहकर आज वहाँ से निकल भी रहा हूँ। जो पहले था, सो अब भी हूँ। ऐसे पहनावे में जाने से कोई मानहानि की बात नहीं। मैं तो पहचाना ही इन्हीं कपड़ों में जाता हूँ। 

 

इतना कहकर वह धीरे-धीरे घर से बाहर निकल आये, गृहिणी पीछे-पीछे आयी और द्वार के निकट खड़ी हो उन्हें जाते देखती रही।

 

जब वह दफ्तर पहुँचे, तो उनके साथियों ने उन्हें बड़े आदर और श्रद्धा से लिया। उन्होंने उनको चारों ओर से घेर लिया और समाचार पूछने लगे। गांगुली बाबू ने अपने आपको फिर उसी वातावरण में पाया, जहाँ से अलग होने के बाद उनकी हालत किसी ऐसे राजनीतिक कैदी जैसी हो गयी थी, जिसे उसके साथियों से विलग कर किसी एकांत कोठरी में डाल दिया गया हो। इसलिए वह भी उनसे मिलकर बहुत खुश हुए। ,,,,, ज़रा देर बाद बड़े साहब भी आ गये। वही बिदाई पार्टी के सभापति थे।

 

सभा की कार्रवाई आरम्भ हुई। गांगुली बाबू को एक मान पत्र भेंट किया जा रहा था। मान-पत्र उनके एक पुराने मित्र पढ़ रहे थे। उस पत्र में उनका संक्षिप्त परिचय था और उनके कामों की चर्चा थी, जो उन्होंने अपनी चालीस वर्ष की नौकरी में वहाँ अंजाम दिए थे। उस पत्र में उनके उस सरल स्वभाव, सचाई, सहयोग और मित्रता का वर्णन था, जिसके नाते वह सबके दिलों में जगह बना चुके थे। वह बड़े ही भले आदमी कहलाते थे। अपनी चालीस वर्ष की नौकरी में वह कभी अपने किसी साथी से नहीं झगड़े थे, कभी किसी के खिलाफ उन्होंने कोई शिकायत नहीं की थी। वह हमेशा अपने साथियों की हर तरह से मदद करते थे। उन्होंने जैसे अपने आपको एक अच्छा आदमी बहाने का प्रयत्न किया था, वैसे ही अपने साथियों के बीच भी एक हमदर्दी का वातावरण पैदा कर दिया था। वह जब क्लर्क बनकर उस दफ्तर में आये थे, एक बड़े ही गरीब और तंगहाल आदमी थे। दिन-भर काम करते थे और अफसरों की झिड़कियाँ सुना करते थे। वह उन दिनों के कटु अनुभव अपने मन से कभी नहीं भुला पाए थे। 

 

इसी बीच जब उनकी शादी हुई थी, घर की चिंता बढ़ गयी थी। गृहस्थ जीवन के झंझटों ने उन्हें दिन-रात परेशान कर रखा था। तब भी दफ्तर को उन्होंने सबके ऊपर रखा जैसे दफ्तर उनके जीवन का महत्वपूर्ण अंग हो।

 

उनके सहयोगी मान-पत्र में उनकी बड़ी तारीफ़ कर रहे थे, उनकी सचाई, साहस और सरलता की प्रशंसा कर रहे थे। गांगुली बाबू सब कुछ सुन रहे थे। उनका माथा झुका हुआ था, और मित्र के मुख से निकले प्रशंसा के शब्द उनके कानों में करुण संगीत की तरह गूँज रहे थे। 

 

उन्हें याद है। एक बार एक साहब ने उन्हें 'नानसेंस' कह दिया था, तो वे गुस्से में फाइलें मेज पर पटककर साहब से अपने शब्द वापस लेने के लिए उसके स्वरों से भी अधिक तेज स्वर में चीखने लगे थे। सारे दफ्तर में एक हंगामा-सा मच गया था। और आखिर साहब को 'सारी' कहकर अपने शब्द वापस लेने ही पड़े थे। उस समय गांगुली बाबू ने सोचा था, मनुष्य परिस्थितियों में घिर कर कभी पराजय मान लेता है, किन्तु जब उसका आत्माभिमान उसे उकसाता है, तो वह गुलामी के वातावरण के होते हुए भी विद्रोह कर बैठता है। जिस मनुष्य में विद्रोह का कुछ अंश नहीं, वह कायर है, जीना उसके लिए निरर्थक है।

 

उनके मित्र उनके बारे में बहुत-कुछ कहते जा रहे थे। सुन-सुनकर गांगुली बाबू को ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे वे एक बहुत बड़े आदमी हैं और दफ्तर के वह एक बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। अब उनके वहाँ से चले जाने के बाद उन जैसा कोई दूसरा आदमी नहीं रह गया है, जो दफ्तर में अपना सर ऊँचा कर बैठ सक। उन्होंने एक नजर अपने सभी साथियों की ओर देखा और मन ही मन सोचने लगे, उनमें और मुझमे क्या अंतर है? ,,,,, कुछ भी तो नही।  मैं उम्र-भर किरानी रहा हूँ और आज एक किरानी से भी गया गुजरा हूँ। तब मैं कैसे बड़ा बन गया? वह सोचने लगे, क्या एक मेरे न होने से दफ्तर का काम रुक गया है? नहीं, वही दफ्तर है और कर्मचारी भी वही। काम सलीके से चल रहा है। इसलिए मेरे होने या न होने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। न तो मैं पहले कभी बड़ा आदमी था और न अब हूँ, और न कभी बन सकूँगा। मुझ में कोई ऐसी खूबी नहीं है, जो मुझे बड़ा बना दे। साठ वर्ष का बूढ़ा हो चुका हूँ। चालीस वर्ष इसी दफ्तर में बिताएं हैं। जिंदगी में कोई बड़ा काम नहीं किया। आज मुझे मेरे साथियों ने आमंत्रित किया है। आज इनका स्नेह मुझे यहाँ बाँध लाया है। यह जो मेरी प्रशंसा कर रहे हैं, यह तो इन्हीं की बड़ाई है, इन्ही के मन की श्रद्धा है। इन्हीं की दृष्टि ऊँची है, जो मुझे मंच पपर बैठकर मुझे श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। 

 

जब मान-पत्र का पढ़ना समाप्त हुआ, तो बड़े साहब कुर्सी पर से उठ खड़े हुए।  उन्होंने गांगुली बाबू की प्रशंसा करते हुए सबको यह बताया कि वह कितने सीधे और मन लगाकर काम करने वाले व्यक्ति थे। वह फार्म के बहुत पुराने और अच्छे सेवक थे। दफ्तर का सारा स्टाफ उनकी अनुपस्थिति सदा अनुभव करता रहेगा। उनके प्रति सारा स्टाफ श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए भगवान् से उनके स्वास्थ्य के लिए कामना और दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। 

 

साहब ने अंत में उन्हें एक जेब-घड़ी भेंट की और कहा - यह एक छोटी-सी भेंट मैं स्टाफ की ओर से इन्हें भेंट करता हूँ। आशा है इसे स्वीकार कर गांगुली बाबू हमें अनुगृहीत करेंगे और इसके निमित्त हम सबको बराबर याद करते रहेंगे। 

 

गांगुली बाबू ने वह घड़ी अपने दोनो हाथों में ले ली। सारे साथियों ने जोर से तालियाँ बजायी। साहब बैठ गयेऔर गांगुली बाबू धन्यवाद के रूप में दो शब्द कहने के लिए खड़े रह गये।

 

एक बार उन्होंने अपने सभी साथियों की ओर देखा और सोचने लगे कि क्या बोलूँ? ,,,,, ये दोस्त, मित्र और साथी, कल मैं उनमें से एक था और आज से नहीं रहूँगा। यह जिंदगी कितनी अजीब है ! इसे न जाने कितने अलग-अलग रास्तों पर चलना पड़ता है। इसकी मंजिल का कोई पता नहीं। ,,,,,,,,, मैं अपने साथियों से क्या बोलूँ?

 

सभी साथी उनके मुँह की ओर देख रहे थे, देखते रहे, और फिर उन्होंने देखा, गांगुली बाबू की आँखों से टप-टप आँसू झड़ रहे हैं। ,,,,,, गांगुली बाबू मुँह से कुछ नहीं बोले, और वह दोनों हाथों से सबको प्रणाम करते हुए कुर्सी पर बैठ गये।

 

उनके साथी शायद गांगुली बाबू की आँखों की भाषा समझ गये थे, क्योंकि उनकी आँखों में भी आँसू भर आये थे। 

 

- गुरुबचन सिंह

(सितम्बर 1958 में नई दिशा प्रकाशन, जमशेदपुर से प्रकाशित कहानी संग्रह 'नीम की निबौलियाँ' से साभार)

 

बीसवीं सदी के लेखक गुरुबचन सिंह

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शमशेदपुर निवासी गुरुबचन सिंह ने बीसवीं सदी के छठे दशक में कई कहानियाँ लिखीं, जिसका एक संग्रह "नीम की निबौलियाँ" अपने समय में काफी चर्चित रहा। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से भारतीय सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का वर्णन किया। उनकी भाषा सरल और स्पष्ट वर्णन करती है। लेखक के बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है। संभवतः जमशेदपुर के मित्र कुछ और जानकारी दे सकें तो कृपया साझा करें।

 

धन्यवाद,

केशव राम सिंघल