रविवार, 11 अक्तूबर 2015

जाने किस उम्मीद में .... # 16




अब तो चुपचाप सा खामोश गुजरता है मेरा दिन, फिर भी,
जाने किस उम्मीद में, अब अपने से ही बातें करता हूँ मैं !
© 2015 केशव राम सिंघल

शुभकामना सहित,

केशव राम सिंघल

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

जाने किस उम्मीद में ....#6



संतुष्टि अंतर्निहित होती है, उसी प्रकार आनंद, विचार और धारणा का मूल तत्व,
तो फिर कोई क्या सोचे क्या फर्क पड़ता है.
हम तो मस्त हैं, आनंदित हैं, तृप्त हैं संतुष्ट हैं, इच्छाओं के बिना भी.

जाने किस उम्मीद में ....#6

प्रभावित करने की किसी को कोई इच्छा नहीं अब, फिर भी
जाने किस उम्मीद में, उम्मीदों के बिना भी आनंदित हूँ मैँ !

शुभकामना सहित,

- केशव राम सिंघल

बुधवार, 30 सितंबर 2015

दर्द्पुरा का दर्द



दर्द्पुरा का दर्द

श्रीनगर (जम्मू-कश्मीर) से लगभग 100 किलोमीटर दूर भारतीय सीमा में कुपवाड़ा जिले में लोलाब पहाड़ की तलहटी में बसा एक छोटा सा गांव है 'दर्दपुरा' और पहाड़ के दूसरी ओर है पाकिस्तान. 'दर्द्पुरा' गांव की दर्दभरी कहानी मानवाधिकारों के उल्लंघन की दास्ताँ है, जिसपर एक पत्रकार किरण शाहीन की विस्तृत रिपोर्ट साप्ताहिक 'शुक्रवार' (23 जनवरी 2014) में प्रकाशित हुई थी. दर्द्पुरा के दर्द की संक्षिप्त दास्तान कुछ ऐसी है.

अब यह एक उजाड़ गांव कहलाता है,
जहाँ रहती हैं 'लापता' मर्दों की अर्द्ध-विधवाएँ
जो यह भी नहीं जानती कि उनके पति जिन्दा हैं या मर गए ...
मानवाधिकारों का मारा है यह गांव ...
उन्नीस सौ नव्बे से हुई मर्दों के लापता होने की शुरुआत
हर दूसरे या तीसरे दिन किसी-न-किसी मर्द को
या तो फौज या फिर आतंकवादी उठा ले जाते !
इल्ज़ाम फौज का कि वे आतंकवादियों की मदद करते हैं
या फिर
शक़ आतंकवादी गिरोह का कि वे फौज के मुखबिर हैं ....
फौज उठाए या आतंकवादी
घर में मर्द दिखना बंद हो जाता
और परिवारजनों की आँखें इंतज़ार में सूख जाती !
एक दिन ... दो दिन ... एक बरस ... दो बरस ... पच्चीस बरस ...
लौटने का इंतज़ार अब धीरे-धीरे मरने लगा है.
अब तो गांव में
कोई अपनी बेटी भी ब्याहना नहीं चाहता
और नहीं चाहता वहां कोई रिश्ता जोड़ना ...
गांव की बेटियाँ भी बिन ब्याही बैठीं हैं !
पच्चीस साल से चल रही है लापता-राजनीति
और सियासत से जुड़े राजनेता बैठे हैं कानों में तेल डालकर !
गांव की औरतें अर्द्ध-विधवाओं की अधूरी जिन्दगी जीने को मजबूर हैं !

- केशव राम सिंघल

मानवाधिकार एक बड़ी जरूरत


मानवाधिकार एक बड़ी जरूरत

- केशव राम सिंघल

आज मानवाधिकार एक बहुत बड़ी जरूरत है, क्योंकि मानवाधिकार उल्लंघन के बहुत से मामले सामने आ रहे हैं। अप्रैल 2015 की एक घटना फ़रीदाबाद में घटित हुई। फ़रीदाबाद में क्राइम इन्वेस्टीगेशन एजेन्सी (CIA) द्वारा कक्षा 7 के एक छात्र को थर्ड डिग्री यातना दी गई। रिपोर्टानुसार एक बच्चे को चोरी के मोबाइल फोन की बिक्री के शक़ में पकड़ा, जिसे पुलिस चौकी में बुरी तरह पीटा गया और विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल कर प्रताड़ित किया गया। इस घटना का स्वत: संज्ञान राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (NHRC) लिया। एक दूसरी घटना - कासगंज (उत्तर प्रदेश) में पुलिस ज्यादती देखने को मिली, जहाँ थाने के उपनिरीक्षक और उसके सहयोगियों ने एक परिवार के चार सदस्यों को अवैध पुलिस हिरासत में रखा। इसके अलावा मानवाधिकार उल्लंघन के बहुत से मामले होते रहे हैं, जिन सबका उल्लेख इस लेख में नही है, फिर भी बहुत से मामलों पर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (NHRC) संज्ञान लेता रहा है, जो निम्न से अधिकतर संबंधित हैं -
- पुलिस और न्यायिक हिरासत के दौरान मौत
- कथित फर्जी मुठभेड़
- कानूनी कार्रवाई में पुलिस की विफलता
- अवैध गिरफ्तारी
- गैर-कानूनी नजरबंदी
- पुलिस द्वारा शक्ति का दुरुपयोग
- बलात्कार
- अपहरण
- हत्या
- अपमान
- शोषण
- सरकारी निष्क्रियता

भारत एक स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है, लेकिन आश्चर्य होता है आज भी हम अंग्रेजी हुकूमत के बनाए ज्यादातर कानूनों की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। अंग्रेजों का राज चला गया पर उनका कानून अभी भी जिंदा है। राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी और पुलिस कानून को अपने हित के लिए तोड़-मरोडकर उनका बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं। आतंकवाद विरोधी कानून की आड़ में किसी निर्दोष युवक को सलाखों के पीछॆ धकेल दिया जाता है। कानून की आड़ में आम नागरिक की निजता हरने की कोशिश हो रही है। देश में अभिव्यक्ति की आजादी छीनने की भी लगातार कोशिश हो रही है। अनिवार्य मतदान का कानून लाने की कोशिश व्यक्ति की स्वतन्त्रता छीनने की ओर बदता कदम है। विकास के नाम पर गरीबों की बस्तियां उजाड़ी जां रही हैं। यह मह्सूस किया जाता रहा है कि बहुत से सरकारी निर्णय प्राय: व्यक्तिपरक (person-based) अधिक होते हैं, जबकि उन्हें व्यवस्थापरक (system-based) होना चाहिए। राजनेताओं की सोच, व्यवहार और कृत्य चौंकानेवाला अधिक है। सता की निरंकुशता बढ़ रही है, जिसमे राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी और पुलिस अधिक शक्तिशाली होते जा रहे हैं। आम नागरिकों की बात सुनने के लिए सरकारी-तंत्र ने अपने कान बंद कर रखे हैं। सरकारी-तंत्र द्वारा जनता के पत्रों का जवाब ही नही दिया जाता, चाहे पत्र आप रजिस्टर्ड डाक या स्पीड पोस्ट से क्यों ना भेजें। यह एक प्रकार की सरकारी निष्क्रियता को दर्शाता है, जहाँ निर्णय लेना तो दूर, सरकारी-तंत्र प्राप्त पत्रों को पढ़ना ही नहीं चाहता।

मै आपका ध्यान कुछ ऐसी बातों की ओर दिलाना चाहता हूँ, जहां नियम विरुद्ध और मानव अधिकारों के खिलाफ काम हो रहे हैं. राजस्थान (सम्भवत: भारत के अन्य राज्यों में भी) में मनमानी टोल वसूली होती है और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर ठेकेदारों को टोल वसूली की खुली छूट दे दी जाती है। राजस्थान हाईकोर्ट ने एक मामले में निर्णय देते हुए 119 किलोमीटर लम्बी सीकर-झुंझुनू-लुहारु स्टेट हाईवे सड़क की टोल वसूली पर अग्रिम आदेश तक रोक लगा दी और आश्चर्य व्यक्त किया कि आम जनता से सड़क निर्माण की लागत से दस-गुना से ज्यादा टोल वसूला जां रहा है। इस हाईवे निर्माण की लागत वर्ष 2011 में ही पूरी हो चुकी थी, फिर भी टोल वसूला जा रहा था। एक अन्य बात जो बताना चाहता हूँ कि दिन दहाडे होटल या लॉज के कमरे में रुके लोगो को पुलिस अपराधियों की तरह पकड़ती है, नौजवान युवक-युवतियों को थप्पड़ मारे जाते हैं, जलील किया जाता है और शान्ति-भंग या अन्य अपराध के केस बनाकर फँसाया जाता है। पुलिस का इस तरह का व्यवहार उचित् नही कहा जां सकता। उन्हें लोगों की आजादी छीनने, अपनी मर्जी से बाहर जाने, साथ घूमने और साथ रुकने की आजादी छीनने का कोई अधिकार नहीं है। कई बार ऐसा लगता है कि सरकार और पुलिस नागरिकों की निजता में अतिक्रमण कर रही है। एक और बात जो आपके ध्यान में लाना चाहता हूँ कि बहुत सी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियाँ अपनेमुनाफे के लिए भारत में लाचार कानून व्यवस्था के कारण गैर-जिम्मेदार औषधि परीक्षण के माध्यम से मरीजों को बिना बताए उनपर नए ईजाद किए उपकरण या नई ईजाद दवा का प्रयोग कर रहे हैं। यह निश्चित ही मानवाधिकारों के खिलाफ किए जाने वाला कृत्य है कि कोई किसी पर बिना बताए दवा परीक्षण या क्लिनिकल ट्रायल करे। एक खौफनाक बात यह है कि क्लिनिकल ट्रायल्स अधिकतर दिल की बीमारी, कैंसर रोगियों और मधुमेह के रोगियों पर किए जां रहे हैं, ऐसे में उन लोगों की जिदगी दोव पर होती है जिनपर बिन बताए ये ट्रायल्स किए जां रहे हैं। जरूरत है कि नागरिकों को बेलगाम, अनैतिक और बिन-बताए दवा परीक्षण और क्लिनिकल ट्रायल्स से बचाने की। एक और बात - खान-पान की आजादी भी सरकार छीनना चाहती है। क्या खाना है, क्या नहीं खाना है, ऐसा लगता है कि अब यह सब सरकार तय करेगी।

आज भी हमारे देश में फाँसी (मृत्यु-दंड) की सजा का प्रावधान है, जबकि दुनियाँ के ज्यादातर मुल्कों ने अपनी कानून की किताबों से सजा-ए-मौत का पन्ना फाड़ दिया है। यह एक कड़वा सच है कि फाँसी (मृत्यु-दंड) की सजा से आतंकवाद या किसी क्रूरतम अपराध का खात्मा या समाधान नहीं हो सकता। देश के अनेक पूर्व-न्यायाधीशों ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि देश की अदालतों ने कई बेकसूरों को फाँसी देने के आदेश दिए। कई अवकाश-प्राप्त न्यायाधीशों ने राष्ट्रपति को भेजी अपनी अपीलों में लिखा कि देश की अदालतों द्वारा कई लोगों को फाँसी की सजा नियमों के विरुद्ध दी गई। फाँसी की सजा एक ऐसी गलती है, जिसे कभी सुधारा नहीं जा सकता। फाँसी की सजा देकर अपराधी को भी नहीं सुधारा जा सकता, बल्कि उम्र-कैद या अन्य सजा देकर अपराधी को सुधारने का प्रयत्न किया जा सकता है। फाँसी की सजा एक अमानवीय कृत्य है। फाँसी की सजा क्रूरता है। सभ्य समाज से इसे हटा लिया जाना चाहिए।

जरूरत है जागरूकता की

समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए मानव अधिकारों की बड़ी जरूरत है। साथ ही समाज में व्यापक स्तर पर लोगों में मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है। जिसके लिए मानवाधिकार संगठन अपनी महती भूमिका निभा सकते हैं और व्यापक स्तर पर समाज, विशेषकर युवाओं, को जागरूक कर सकते हैं।

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

जाने किस उम्मीद में ....#5


जाने किस उम्मीद में ....#5

कुछ लोग दिल में दिमाग रखकर बात करते हैं, फिर भी,
जाने किस उम्मीद में दिमाग में दिल रख सोचता हूँ मैं !

- केशव राम सिंघल

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

जाने किस उम्मीद में ... #4


जाने किस उम्मीद में ... #4

आईने में जब दिखा बदसूरत चेहरा अपना, फिर भी,
जाने किस उम्मीद में आईने को साफ़ करने लगा मैं !

भूल गया धूल आईने पर नहीं, चेहरे पर है, फिर भी,
जाने किस उम्मीद में आईने को साफ़ करने लगा मैं !
- केशव राम सिंघल

जाने किस उम्मीद में ... #3


मन्दिर में भगवान नहीं, मूरत मिली उसकी, फिर भी,
जाने किस उम्मीद में इधर-उधर खोजता-फिरता हूँ मैं !
- केशव राम सिंघल

इधर-उधर = क्भी इस मन्दिर में, कभी उस मन्दिर में, कभी गुरुद्वारे में, कभी मस्जिद में, तो कभी चर्च में ...

सोमवार, 20 जुलाई 2015

जाने किस उम्मीद में ... #2


किस मंशा से जलाते रहे वे नफ़रत की आग, फिर भी,
जाने किस उम्मीद में पैगाम मुहब्बत का गाता हूँ मैं ।
- केशव राम सिंघल

बुधवार, 15 जुलाई 2015

एक नजर यह भी .... एक ग़लत नजरिया ...


एक नजर यह भी ....

एक ग़लत नजरिया ...


बैंकों के सेवानिवृत कर्मचारी और अधिकारी ताकते रह गए हैं. उन्हें इस बार भी द्विपक्षीय समझौते दिनांक 25 मई 2015 में कुछ मिला नही. न तो बेसिक पेंशन में कोई बढ़ोतरी हुई और न ही पारिवारिक पेंशन में सुधार हुआ है. सबसे अधिक दुःख तो इंडियन बैंक्स एसोसिएशन (Indian Banks' Association) के रवैये से हुआ, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया - "IBA maintained that any demand of retirees can be examined as a welfare measure as contractual relationship does not exist between banks and retirees." यह तो ऐसा वक्तव्य है जैसे वे कहना चाह रहे हों कि बैंक जो पेंशन सेवानिवृतों को दे रहे हैं, उसके लिए बैंकों की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है, यह तो कल्याण उपाय (welfare measure) के तौर पर दी जाने वाली राशि है, जो उनकी दया-अनुकम्पा है और जिसे कभी भी रोका जा सकता है. कितना ग़लत है ऐसा नजरिया ?

कानूनी रूप से देखा जाए तो इंडियन बैंक्स एसोसिएशन की सोच ग़लत है. वास्तव में पेंशन सेवानिवृत कर्मचारी/अधिकारी का वैधानिक अधिकार है, जो पेंशन रेग्युलेशन. 1995 से मिला, जो 29 सितंबर 1995 को अधिसूचित हुआ था. पेंशन रेग्युलेशन सेवानिवृत कर्मचारी/अधिकारी से संविदात्मक संबंध (contractual relationship) को स्वीकार करता है. पेंशन एक आस्थगित वेतन (deferred wage) है और इस तथ्य को पूरा विश्व स्वीकार करता है. आज जब संस्थाएँ सामाजिक उत्तरदायित्व (social responsibility) से अपने आपको अलग नहीं कर सकते तो इंडियन बैंक्स एसोसिएशन कैसे पेंशन सुधार से अपना मुँह मोड़ रहा है, यह समझ के बाहर है.

दुःख होता है इंडियन बैंक्स एसोसिएशन के अधिकारियों पर जो संकीर्ण सोच रखते हैं और इसी कारण इंडियन बैंक्स एसोसिएशन का एक ग़लत नजरिया बना है. क्या वे नही जानते कि कभी वे भी सेवानिवृत होंगे.

- केशव राम सिंघल

(इस पोस्ट की मूल भावना से यदि आप सहमत हों तो कृपया इस पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करें. कृपया अपनी टिप्पणी से अवगत कराएँ. धन्यवाद.)
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गुरुवार, 9 जुलाई 2015

एक नजर यह भी ... राष्ट्रगान पर बेवजह विवाद


एक नजर यह भी ...
राष्ट्रगान पर बेवजह विवाद


राजस्थान राज्य के राज्यपाल ने राष्ट्रगान से 'अधिनायक' शब्द हटाने की बात कही है और इस प्रकार एक विवाद को हवा देने का प्रयास किया है।

भारत का राष्ट्रगान 'जन गण मन' है, जो मूलतः बांग्ला भाषा में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखा गया था, जिसे भारत सरकार द्वारा 24 जनवरी 1950 को राष्ट्रगान के रूप में अंगीकृत किया गया। इसके गायन की अवधि लगभग 52 सेकेण्ड निर्धारित है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्व के एकमात्र व्यक्ति हैं, जिनकी रचना को एक से अधिक देशों में राष्ट्रगान का दर्जा प्राप्त है। उनकी एक दूसरी कविता 'आमार सोनार बाँग्ला' को बांग्लादेश में राष्ट्रगान का दर्जा प्राप्त है।

हमारे देश का राष्ट्रगान ना केवल हमारी पहचान है बल्कि हमारी आन-बान-शान का प्रतीक् भी है। सोशल मीडिया (व्हाट्सअप्प) पर ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि हमारे राष्ट्रगान को यूनेस्को की ओर से विश्व का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान करार दिया गया, जो बहुत ही गौरव की बात है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की लिखी कविता, जो भारत का राष्ट्रगान है, पर बहस 1911 से ही होती रही जिस समय इसे लिखा गया था। विवाद पैदा करने वाले लोग इस तथ्य पर ध्यान नही देते कि 1937 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पुलिन बिहारी सेन को लिखे एक पत्र में यह स्पष्ट किया था कि यह कविता ब्रिटिश शासकों की प्रशंसा में नहीं लिखी गई।

राष्ट्रगान ऐसा गाना होता है, जो किसी भी देश के इतिहास और परंपरा को दर्शाता है। राष्ट्रगान उस देश को न केवल एक अलग पहचान देता है, बल्कि उसका लयात्मक संगीत सभी देशवासियों को एकजुट भी करता है। हमारा राष्ट्रगान ऐसा ही है। हमें इस पर गर्व होना चाहिए। गुरुदेव टैगोर ने राष्ट्रगान ‘जन गण मन..’ की रचना की। पहले उन्होंने इसे एक बंगाली कविता के रूप में लिखा था। 27 दिसम्बर 1911 को कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक सभा में इसे पहली बार गाया गया था। जिस 'अधिनायक' शब्द पर विवाद पैदा किया जा रहा है, उसका अर्थ 'नेतृत्व' (Leadership) से है और यही कवि की भावना थी।

यह सब जानने के बाद हमें राष्ट्रगान पर बेवजह विवाद से बचना चाहिए।

- केशव राम सिंघल

(कृपया अपनी टिप्पणी से अवगत कराएँ. धन्यवाद.)
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बुधवार, 8 जुलाई 2015

एक नजर यह भी ..... पार्षद से मेरी अपेक्षाएँ


एक नजर यह भी .....
पार्षद से मेरी अपेक्षाएँ


पिछली बार अजमेर नगर निगम के चुनाव 18 अगस्त 2010 को हुए थे और तब चुनाव के बाद हमारे वार्ड के नवनिर्वाचित पार्षद महोदय एक बार मेरे मोहल्ले में आए थे, पर उसके बाद मैंने उन्हें कभी नहीं देखा.जब वे आए थे, तब उन्होंने मोहल्लेवासियो को कई आश्वासन दिए थे, पर वे केवल आश्वासन ही रहे. आमतौर से नागरिकों की नगर निगम और पार्षद से कुछ अपेक्षाएँ होती हैं, जिसमे सुशासन का होना, स्ट्रीट लाइट्स का समय पर जलना-बंद होना, खराब स्ट्रीट लाइट्स का जल्द ठीक होना, नियमित सफाई व्यवस्था का होना, नालियों की समय-समय पर मरम्मत, सड़कों की मरम्मत आदि शामिल होती हैं. इन सभी कार्यों में पार्षद की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है, पर मुझे यह लिखते हुए तनिक भी संकोच नही है कि हमारे वार्ड के पार्षद महोदय का जन-संपर्क बहुत ही सीमित है और मेरा विश्वास है कि इस शहर के अन्य पार्षदों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है. अखबारों के माध्यम से ज्ञात होता रहता है कि नगर निगम की समय-बद्ध नियमित साधारण-सभा (बैठकें) भी आयोजित नहीं हो पाती हैं और ज्यादातर पार्षद अप्रत्यक्ष तौर से ठेकेदारी के काम से नगर निगम से जुड़े हुए हैं. यह स्थिति किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है.

नगर निगम चुनावों को अब पाँच साल पूरे होने को हैं और सम्भवत: अगस्त 2015 में नगर निगम के अगले चुनाव होंगे. यह एक ऐसा मौका होगा जब अजमेर शहर के नागरिक अपने-अपने वार्ड के लिए पार्षद चुन सकेंगे. पार्षद कैसा होना चाहिए, यह प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है. एक नागरिक होने के नाते हमें इस पर विचार करना चाहिए. इस सम्बन्ध में मेरी अपेक्षाएँ निम्न हैं:

- पार्षद ऐसा हो जो वार्ड में जनता के बीच आसानी से उपलब्ध हो सके. वह् प्रतिदिन अपने निवास पर प्रात: दो घंटे के लिए और उसके बाद नगर निगम कार्यालय में एक निश्चित समयावधि के दौरान जन-संपर्क के लिए उपलब्ध रहे.
- पार्षद के निवास पर एक सुझाव/शिकायत् पुस्तिका होनी चाहिए, जिसमें वार्ड के नागरिक वार्ड से संबंधित अपनी शिकायत/समस्या/सुझाव लिख सकें.
- पार्षद के पास वर्तमान तकनीक के संचार साधन हों तथा उसका ईमेल और मोबाइल/फोन नंबर वार्ड के नागरिकों को सूचित हो.
- सार्वजनिक तौर से पार्षद अपने वार्ड में समय-समय पर मौहल्ला-सभा आयोजित करे, जिसमें सफाई-रोशनी व्यवस्था, विकास कार्यों और वार्ड से संबंधित मुद्दों पर चर्चा हो.
- पार्षद यह सुनिश्चित करे कि विवाह-पंजीयन, जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र, मानचित्र स्वीकृति आदि कार्यों के लिए नागरिकों को बार-बार चक्कर नहीं लगाने पड़े.
- पार्षद समय-समय पर अपने वार्ड के प्रत्येक क्षेत्र में जाकर सफाई-रोशनी व्यवस्था और विकास कार्यों का मुआयना कर आवश्यक सुधार के कदम उठाए.
- पार्षद अपने वार्ड के लिए एक वार्ड समिति बनाए, जिसमें प्रत्येक मौहल्ले के नागरिकों का प्रतिनिधित्व हो.
- वार्ड के प्रत्येक क्षेत्र में लगाए गए सफाई कर्मचारियों की जानकारी पार्षद वार्ड के नागरिकों को दे.
- पार्षद नगर-निगम से संबद्ध ठेकेदारी का काम नहीं करे.
- पार्षद समय-समय पर आयोजित नगर-निगम की बैठकों में दल-गत राजनीति को परे रखते हुए अपने वार्ड के विकास और समस्या-निराकरण के लिए सकारात्मक विचारों के साथ भाग ले.


एक नागरिक होने के नाते हमें भी दल-गत राजनीति से ऊपर उठकर ऐसे प्रत्याशी को पार्षद चुनना चाहिए, जो वार्ड के विकास के साथ-साथ अजमेर शहर के विकास में अपनी भूमिका निभा सके.

"विकास में जनता की भागीदारी तभी सुनिश्चित होगी,
जब जनता जागरूक होगी,
स्थानीय निकाय में सुशासन तभी आएगा,
जब जनता जागरूक होगी.

सशक्त अजमेर के लिए आओ कुछ नया सोचें, लिखें और करें
और भागीदार बने इस शहर को विकास के पथ पर आगे बढ़ाने में."

- केशव राम सिंघल

(अजमेर शहर के मित्रों से निवेदन है कि जागरूकता के लिए इस लेख को अधिक से अधिक शेयर करें. कृपया अपनी टिप्पणी से अवगत कराएँ. धन्यवाद.)
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मंगलवार, 7 जुलाई 2015

एक नजर यह भी .... विकास की अंधाधुंध दौड़


एक नजर यह भी ....

विकास की अंधाधुंध दौड़


भारतीय बैंक क़रीब तीन लाख करोड़ का कर्ज़ फंसाए बैठे हैं, जिनमें 40 फीसदी कर्ज़ सिर्फ़ 30 बड़ी कंपनियों पर बकाया है. भारत में बैंक नहीं डूबते क्योंकि सरकार बजट से पैसा देती रही है. (इंडिया टुडे, अंक 15 जुलाई 2015)

हमें ग्रीस (यूनान) से सीखना चाहिए कि विकास के बाद भी एक विकसित देश दिवालिया हो सकता है. हमें विकास की अंधाधुंध दौड़ में शामिल नहीं होना चाहिए, वरन् सतत् विकास (sustainable development) की ओर ध्यान देना चाहिए, ऐसा आर्थिक विकास जो प्राकृतिक संसाधनों की कमी के बिना आयोजित किया जाता है.

- केशव राम सिंघल
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एक नजर यह भी ..... राजनीति में नैतिक मूल्य


एक नजर यह भी .....

राजनीति में नैतिक मूल्य


भ्रष्टाचार समाप्त करने और शासन में पारदर्शिता लाने के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दावे अब छिन्न-भिन्न हो गए लगते हैं. मोदी सरकार के गठन के 14 महीनों के अन्दर ही भाजपा शासित राज्यों में घोटालों का पर्दाफाश हो रहा है.

विदेशमंत्री सुषमा स्वराज व राजस्थान मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे द्वारा ललित मोदी की तरफदारी, मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा शैक्षणिक योग्यता के लिए दिए गए हलफनामें, मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाला तथा छत्तीसगढ़ में पीडीएस चावल घोटाला ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर संसद के आगामी मानसून सत्र में विपक्ष तीखे तेवर दिखा सकता है, पर लोकसभा में विपक्ष संख्याबल के आधार पर कमजोर स्थिति में है. इन सब मुद्दों के कारण जनता के बीच नरेन्द्र मोदी सरकार की छवि तेजी से गिरने लगी है.

व्यापम घोटाला उजागर होने के बाद घोटाले से संबंधित 45 से अधिक लोग रहस्यमय परिस्थितियों में मर चुके हैं. गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने सीबीआई जाँच की माँग ठुकरा दी है. 'मन की बात' कहने वाले प्रधानमंत्री इन मुद्दों पर चुप हैं. नैतिक रुप से तीनों मुख्यमंत्रियों और दोनों केंद्रीय मंत्रियों को अपने पदों से इस्तीफा देकर स्वतंत्र जाँच में सहयोग करना चाहिए, पर वर्तमान भारतीय राजनीति में ऐसा संभव नहीं लग रहा क्योंकि राजनीति में नैतिक मूल्यों का बहुत तेजी से ह्रास होता दिख रहा है.

- केशव राम सिंघल
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सोमवार, 29 जून 2015

एक नजर यह भी .... आम नागरिक टकटकी लगाए देख रहा है ....


एक नजर यह भी ....

मुझे अभी-अभी इंडिया टुडे 8 जुलाई अंक देखने का अवसर मिला और मै अंशुमान तिवारी की बातों से सहमत हूँ. मोदी सरकार में साहसी बदलावों की जरूरत है, अन्यथा देश को एक कमजोर और लिजलिजी सरकार को अगले चार सालों तक झेलना होगा. वास्तव में नरेन्द्र मोदी के लिए अपनी सरकार की सर्जरी करने का वक्त आ गया है. सुषमा, वसुन्धरा, स्मृति. पंकजा ऐसे विवाद हैं जिनसे मोदी सरकार की साफ़-सुथरी छवि अब दागी हो गई है. अपेक्षा और मंशा के मुकाबले नतीजे कमजोर हैं. कोई ठोस बदलाव नहीं हुआ. पिछले तेरह महीनों में मोदी सरकार के दो चेहरे देखने को मिलें. पहला, भव्य और शानदार आयोजनों वाला चेहरा, और दूसरा, गवर्नेंस में यथास्थिति - कोई बदलाव नहीं दिखा. महत्वपूर्ण संस्थाओं में खाली शीर्ष पद यह बता रहे हैं कि सरकार का आकार अभी तक पूरा नहीं हो सका है. मोदी सरकार के कई मिथक अब टूटते प्रतीत हो रहे हैं. सरकार और बीजेपी दोनों मोदी में समाहित हैं, इसलिए जो कुछ करना है नरेन्द्र मोदी को करना है और आम नागरिक उनकी ओर टकटकी लगाए देख रहा है.

- केशव राम सिंघल

एक नजर यह भी ....




वाराणसी के ट्रॉमा सेंटर का उद्‍घाटन पिछले वर्ष 2014 में होना था, पर तैयारियाँ पूरी न होने के कारण उद्‍घाटन कार्यक्रम संपन्न नही हो पाया. यह ट्रॉमा सेंटर यूपीए - 2 के कार्यकाल में 2013 में ही तैयार हो गया था, जो उद्‍घाटन समारोह की बाट जो रहा है. 28 जून 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों ट्रॉमा सेंटर का उद्‍घाटन होना था और इस बार बारिश की वजह उद्‍घाटन फिर टल गया.

2013 में तैयार ट्रॉमा सेंटर का उद्‍घाटन मोदी सरकार अपने कार्यकाल के 13 महीनों में भी नही कर पाई है. यहाँ महत्वपूर्ण यह भी है कि वाराणसी नरेन्द्र मोदी का संसदीय निर्वाचन क्षेत्र भी है.

- केशव राम सिंघल

शुक्रवार, 12 जून 2015

जाने किस उम्मीद में ....


ख्वाबों में खोजता गुजरा वो पल धुँधला है अब फिर भी,
जाने किस उम्मीद में यादों का बहाना बन जाता हूँ मैं !

जानता हूँ बदलाव जरूरी / न पा सकने का दु:ख बहुत / फिर भी,
जाने किस उम्मीद में छलकते हैं आँसू और हल्का हो जाता हूँ मैं !

दर्द है, गम है, घुटन और मुश्किलें बहुत फिर भी
जाने किस उम्मीद में हँसकर सबकुछ छुपाता हूँ मैं !

- केशव राम सिंघल

शुक्रवार, 22 मई 2015

बाऊ जी को समर्पित - जाने किस उम्मीद में ....


बेझिझक बात कहना नहीं आसाँ सुनो ना सुनो फिर भी
जाने किस उम्मीद में अपनी बात कह जाता हूँ मैं ...!

जानता हूँ जेब खाली उधार की उम्मीद कम फिर भी
जाने किस उम्मीद में बाज़ार की ओर मुड़ जाता हूँ मैं ...!

चेहरे पे मौजूद सलवटें झुर्रियां झड़ते बाल फिर भी
जाने किस उम्मीद में आईने से उलझ जाता हूँ मैं ...!

रास्ता आसाँ नहीं पता मंज़िल मिले ना मिले फिर भी
जाने किस उम्मीद में एक और कोशिश में लग जाता हूँ मैं ...!

लड़ता रहा जिन्दगी भर बेशक़ हारता रहा फिर भी
जाने किस उम्मीद में जुलूस का हिस्सा बन जाता हूँ मैं ...!

बाऊजी, सिलसिला बातें खत्म कई साल बीते फिर भी
जाने किस उम्मीद में तुम्हें याद कर जाता हूँ मैं ...!

पुण्यतिथी पर शत् शत् नमन ....

- केशव राम सिंघल




पुण्यतिथी पर शत् शत् नमन ....
(बाऊजी = मेरे वालिद आशा राम सिंघल, जन्म 02 जनवरी 1933, इंतकाल 22 मई 2006)