शनिवार, 11 जनवरी 2020

नागरिकता और नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 (CAA)


नागरिकता और नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 (CAA)

सामान्यता किसी भी देश की नागरिकता प्राप्त करने के चार प्रचलित आधार होते हैं - देश के नागरिक (स्त्री-पुरुष) की संतति, देश के भौगोलिक क्षेत्र में जन्म, एक निश्चित अवधि तक विधि सम्मत निवास और देश के नागरिक से विवाह। भारतीय संविधान में नागरिकता के बारे में भाग दो में धारा 5 से 11 तक सभी नियम दिए गए हैं। हमारे संविधान के अनुच्छेद 5 में नागरिकता के तीन स्पष्ट आधार लिखे गए थे। इसके अनुसार - 'इस संविधान के प्रारम्भ पर प्रत्येक व्यक्ति जिसका भारत के अधिक्षेत्र में अधिवास है और 1. जो भारत में जन्मा था, 2. जिसके माता या पिता में से कोई भारत के राज्यक्षेत्र में जन्मा था, या 3. जो ऐसे प्रारम्भ से ठीक पहले कम से कम पांच बरस तक भारत के राज्य-क्षेत्र में मामूली तौर पर निवासी रहा है। साथ ही धारा 6 में पाकिस्तान से भारत आने वालों को नागरिकता देने और धारा 7 में भारत से पाकिस्तान जाने वालों की नागरिकता की समाप्ति के नियम हैं। इसी के साथ धारा 8 में विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के लोगों को नागरिकता देने और धारा 9 में स्वेच्छा से दूसरे देशों की नागरिकता लेने वाले भारतीयों की नागरिकता रद्द करने के नियम हैं। धारा 10 में नागरिकता की निरंतरता के आधारों का निर्देश है। धारा 11 स्पष्ट करती है कि भविष्य में देश की नागरिकता के नियमों के बारे में संसद ही सर्वेसर्वा है।' इस प्रकार नागरिकता से सम्बन्धित प्रावधानों को भारत के संविधान के द्वितीय भाग के अनुच्छेद 5 से 11 में दिया गया है। प्रासंगिक भारतीय कानून नागरिकता अधिनियम 1955 है, जिसे नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 1986, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 1992, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2003 और नागरिकता (संशोधन) अध्यादेश 2005 और नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के द्वारा संशोधित किया गया। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2003 को 7 जनवरी 2004 को भारत के राष्ट्रपति के द्वारा स्वीकृति प्रदान की गयी और 3 दिसम्बर 2004 को यह अस्तित्व में आया। नागरिकता (संशोधन) अध्यादेश 2005 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रख्यापित किया गया था और यह कानून 28 जून 2005 को अस्तित्व में आया। दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम बना और राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद यह अधिनियम 10 जनवरी 2020 से अस्तित्व में आ गया है।

दिसंबर 2019 में बने नागरिकता संशोधन अधिनियम से केवल हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध,पारसी और ईसाई शरणार्थी लाभान्वित होंगे, जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आये और जिन्होंने 2015 से पहले भारत में शरण माँगी थी। इस अधिनियम के प्रावधानों में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों और अन्य लोगों के साथ श्रीलंका के तमिल शरणार्थियों, म्यांमार के रोहिंग्याओं, चीन में धार्मिक कारणों से प्रताड़ित तिब्बती बौद्ध शरणार्थियों और सिक्यांग के मुस्लिम उग्यूओरों को शामिल नहीं किया गया। साथ ही पड़ौसी देशों में अंतर्धार्मिक हिंसा (शिया-सुन्नी-अहमदिया-कादियानी आदि), राजनीतिक उत्पीड़न (पख्तून, बलूच आदि) और सांस्कृतिक भेदभाव के कारण (मुहाजिर, बिहारी मुसलमान आदि) आए लोगों को शामिल नहीं किया गया। इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार अफगानिस्तान, पाकिस्तान या बांग्लादेश से 31 दिसंबर 2014 तक आने वाले हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को अवैध शरणार्थी नहीं माना जाएगा। इनके खिलाफ घुसपैठ या नागरिकता को लेकर कोई कार्रवाई चल रही है तो नागरिकता देने के साथ वह कार्रवाई ख़त्म मानी जाएगी। इन्हे भारत में रहने के जरिये नागरिकता देने की न्यूनतम समय सीमा ग्यारह साल के बजाय पांच साल होगी। यह कानून छठी अनुसूची में शामिल असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा के जनजातीय इलाकों में लागू नहीं होगा।

इस अधिनियम के विरुद्ध पूरे देश में विरोध का वातावरण है। एक ओर भाजपा-आरआरएस के लोग अधिनियम का समर्थन कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ पूरे भारत में विरोध के स्वर उठाने लगे। असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में रहने वाले लोग नहीं चाहते की किसी भी शरणार्थी या अप्रवासी को भारतीय नागरिकता दी जाए, चाहे उसका धर्म कोई भी हो। इन राज्यों में रहने वाले लोगों को डर है कि इससे उनके क्षेत्र में जनसांख्यिकीय असंतुलन पैदा होगा, जिससे उनके राजनीतिक अधिकारों, संस्कृति और भूमि पर बुरा प्रभाव पडेगा। इन राज्यों के लोग चिंतित हैं कि इस अधिनियम के कारण बांग्लादेश से बहुत अधिक प्रवासन होगा, जिससे असम समझौते का उल्लंघन होने की संभावना है। भारत के अन्य हिस्सों के लोग इस अधिनियम को धार्मिक भेदभाव वाले कानून के रूप में देखते हैं और इसे असंवैधानिक मानते हैं। ऐसे लोगों का स्पष्ट मत है कि केंद्र सरकार को इस अधिनियम को वापिस ले लेना चाहिए। वे इस कानून को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) से जोड़ कर देख रहे हैं। उनकी चिंता है कि इस अधिनियम के आने से हिंदूवादी सोच वाले अधिकारी मुस्लिम नागरिकों को निशाना बनाएंगे और आने वाले राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) में बहुत से नागरिकों को नागरिकता से वंचित करेंगे। इस भ्रम का कारण केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का संसद में वह बयान था जिसमें उन्होंने कहा था कि एनआरसी आएगा।

संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 पेश होने के साथ ही असम में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे और बाद में पूरे भारत में फ़ैल गए। बिना किसी विशेष नेतृत्व के युवा छात्रों ने नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 का विरोध बड़े पैमाने पर किया। विरोध प्रदर्शन के दौरान अनेक जगहों पर पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर डंडे बरसाए और आंसू गैस का इस्तेमाल किया। कई जगहों पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वालों के खिलाफ भी केस दर्ज करने की कुछ खबरें चिंता की बात है। कई लोगों को हिरासत में भी रखा गया। कुछ राज्यों में भाजपा की राज्य सरकारें नहीं हैं। ऐसे कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने घोषणा की है कि वे नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 और एनआरसी को अपने राज्यों में लागू नहीं करेंगे। असम में भाजपा के साथ सरकार चला रहा असम गण परिषद (अगप) भी नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 को स्थानीय लोगों की सांस्कृतिक और भाषाई पहचान के खिलाफ बताते हुए इसका विरोध कर रहा है।

यह अधिनियम व्यापक तौर से CAA के तौर पर जाना जाता है। यह अधिनियम नागरिकता अधिनियम 1955 के प्रावधानों में संशोधन कर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से 31 दिसंबर 2014 को या इससे पूर्व आए हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाईयों (जो इन देशों में अल्पसंख्यक हैं) को धार्मिक उत्पीड़न की धारणा के तहत भारतीय नागरिकता देने का कानूनी प्रावधान है। इस अधिनियम में मुस्लिमों का उल्लेख नहीं है। इस अधिनियम में श्रीलंका से आए तमिल शरणार्थियों के लिए किसी लाभ का उल्लेख नहीं है, जो भारत में रह रहे हैं। इसी प्रकार रोहिंग्या मुस्लिनों, म्यांमार से आए हिन्दू शरणार्थियों और तिब्बत से आए बौद्ध शरणार्थियों आदि को इस विधेयक का लाभ नहीं मिलेगा।

इस विधेयक का विरोध करने वालों का कहना है कि इस विधेयक में धर्म के आधार पर नागरिकता प्रदान करने वाला प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 में दिए समानता के अधिकार के विरुद्ध है। सरकार का तर्क है कि यह विधेयक किसी की नागरिकता छीनने के लिए नहीं, धर्म के नाम पर प्रताड़ित शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए है। इस अधिनियम के आलोचकों का आरोप है कि यह अधिनियम भारत के मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का प्रयास करता है। आलोचकों का यह भी कहना है कि एनआरसी के तहत मुसलमानों को नागरिकता से वंचित किया जा सकता है, जबकि नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 अन्य धर्म (हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई) के लोगों को नागरिकता प्रदान करने में सक्षम होगा। असम में एनआरसी का कड़वा अनुभव हमारे पास है और वहाँ एनआरसी का प्रयोग विवादास्पद रहा। विधेयक का विरोध करने वालों का कहना है कि भारतीय संविधान मानवतावादी और सांप्रदायिकता विरोधी है। इसलिए प्रताड़ित हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई आदि को नागरिकता देने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन मुसलमान होने के नाते किसी को नागरिकता नहीं देना संविधान सम्मत नहीं है। क्या भारत मुस्लिम-निरपेक्ष देश है? हमारी बुनियाद सर्वधर्म समभाव है और 'वसुधैव कुटुम्बकम' की व्यापकता हमारे मूल में है। नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 से पहले नागरिकता कानूनों में कभी भी नागरिकता के लिए धार्मिक आधार नहीं रहा। ऐसा पहली बार हुआ कि धार्मिक आधार जोड़ा गया।

भारत की संसद ने नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 पारित कर नागरिकता अधिनियम 1955 संशोधित किया है। संशोधन लोकसभा और राज्यसभा दोनों से पारित हो चुका है। संशोधित अधिनियम के अनुसार पाक, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से 31 दिसंबर 2014 से पहले आए हिन्दू, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन को नागरिकता देने का प्रावधान है। इस नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 की वैधानिकता को संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 25 के विरुद्ध होने के कारण चुनौती दी गयी है और मामला माननीय सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है।

जय हिन्द! जय भारत!

- केशव राम सिंघल

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