बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

*गांधीजी*


*गांधीजी*

गांधीजी को सशरीर मैंने देखा नहीं। मेरा जन्म 1951 में हुआ था और गांधीजी की ह्त्या मेरे जन्म से पहले 30 जनवरी 1948 को हुई थी। वैसे भी गांधीजी को सशरीर देखने वाले लोग अब बहुत कम होंगे। आजादी के बाद जन्म लेने वाले लोगों के लिए गांधीजी एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते हैं। एक विचार और एक दर्शन के रूप में गांधीजी को हमने पढ़ा है। मूर्तियों, स्मारकों, चित्रों, लाठी और चश्मे जैसे प्रतीकों से गांधीजी की पहचान हमसे कराई जाती रही। गांधीजी के विचारों का भारतीय समाज और इसकी मिली-जुली, साझा संस्कृति से गहरा और न टूटने वाला रिश्ता रहा है। गांधीजी ने अपने जीवनकाल में अपने विचारों को बोलकर या लिखकर अभिव्यक्त किया। उनका बोला और लिखा साहित्य पचास हजार पृष्ठों से भी अधिक का है।

गांधीजी भारत को आतंरिक भेदभावों से मुक्त कर आजाद मुल्क में समानता, समान अवसर और समान हैसियत वाले समाज की संरचना का सपना देखा करते थे। वे महिलाओं को बराबरी का हक़ और सम्मान देने के पक्ष में थे। वे धार्मिक घृणा-द्वेष का अंत चाहते थे। वे छुआछूत और गैर-बराबरी की कालिख से मुक्ति चाहते थे। आज भी गांधीजी एक विचार और एक दर्शन के रूप में पूरे विश्व में छाए हुए हैं।

इतिहास के कुछ गिने-चुने व्यक्तियों में से गांधीजी एक ऐसी शख्सयत थे, जिन्होंने नैतिक, धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मोर्चों पर एक साथ अहिंसक लड़ाईयाँ लड़ी। वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किए जाते हैं, जिनके बारे में विश्व की लगभग सभी भाषाओं में सबसे अधिक लिखा गया है और लिखा जा रहा है। गांधी जी आज भी प्रासंगिक हैं। अहिंसा पर उनके विचारों के कारण ही संयुक्त राष्ट्र ने गांधीजी के जन्मदिन दो अक्टूबर को 'अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस' घोषित किया है।

इतिहास गवाह है कि अधिकतर सत्ताधीश तानाशाह बल और हिंसा द्वारा अपने अस्तित्व और अपनी सत्ता को बचाए रखने की कोशिश करते रहे हैं। बल और हिंसा के उलट गांधीजी ने जीवन के सभी पहलुओं में अहिंसा और नैतिकता का उपयोग करना सिखाया। गांधीजी के अनुसार, "प्राणीमात्र के प्रति समभाव या अनुकूल भाव न रखना हिंसा है। .... किसी का खून करना यह तो हिंसा है ही, किन्तु किसी मनुष्य के श्रम का नाजायज लाभ उठाना भी हिंसा है। .... किसी का बुरा होने की इच्छा करना भी हिंसा है।" वे कहते थे, "अहिंसा के बिना सत्य ढूंढना असंभव है। अहिंसा साधन है। साधन सदा अपने हाथ में होता है। उसका उपयोग करने का दायित्व हम पर होता है।"

1909 में जब गांधीजी लन्दन से अफ्रीका समुद्र के रास्ते जहाज से यात्रा कर रहे थे, तब उन्होंने गुजराती में 'हिन्द स्वराज' नामक एक छोटी सी पुस्तिका लिखी थी। 110 वर्ष पुरानी इस पुस्तिका में व्यक्त विचार आज भी उपयोगी और प्रासंगिक लगते हैं। वे कहते थे, "हमारा उद्देश्य चाहे कितना भी महान हो, लेकिन उसे प्राप्त करने का तरीका अगर गलत हो तो उसका परिणाम अवश्य दुःखदायी होगा।" 'हिन्द स्वराज' पुस्तक द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह बलिदान की बात रखती है और पशुबल से मुकाबला करने के लिए आत्मबल को महत्व देती है।

दकियानूसी विचारों की वजह से बहुत से लोग पुरानी परम्पराओं को बिना सोचे-समझे अपना लेते हैं और उनमें ऐसे फंस जाते हैं कि उन परम्पराओं के अलावा उन्हें बाहर की दुनिया दिखती नहीं। इस सम्बन्ध में चेतावनी देते हुए गांधीजी अपने विचार रखते कि परम्परा के पानी में तैरना अच्छी बात है, लेकिन उसमें डूब जाना आत्महत्या है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दकियानूसी विचारों को गांधीजी ने मान्यता नहीं दी, इसके उलट गांधीजी आधुनिक विचारों के प्रणेता रहे।

गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका के अपने प्रवास के दौरान दासता और दमन की जंजीरों के बीच 'स्वतंत्रता और स्वाभिमान' का पाठ सीखा, जिससे उनमें आत्म-बोध और आत्म-बल उत्पन्न हुआ। 1919 में जलियांवाला बाग़ में हो रही विरोधसभा में अंग्रेजों के अत्याचार और नरसंहार ने गांधीजी की अंतरात्मा को हिलाकर रख दिया था और उसके बाद वे समूचे स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभाल खुलम-खुल्ला स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में कूद पड़े थे।

गांधीजी के विचार और विचारधारा हर जगह लागू हो सकते हैं, जीवन में और प्रशासन में, लेकिन दुःख है कि ऐसा नहीं हो रहा। गांधीजी की विचारधारा में निरंतरता है और एक ऐसे समय में जब असहिष्णुता और चरमपंथी विचारधाराएं सामने दिख रही हैं, पूरी दुनिया में गांधीजी के विचारों की स्वीकार्यता बढ़ रही है।

- केशव राम सिंघल