बुधवार, 30 सितंबर 2015

दर्द्पुरा का दर्द



दर्द्पुरा का दर्द

श्रीनगर (जम्मू-कश्मीर) से लगभग 100 किलोमीटर दूर भारतीय सीमा में कुपवाड़ा जिले में लोलाब पहाड़ की तलहटी में बसा एक छोटा सा गांव है 'दर्दपुरा' और पहाड़ के दूसरी ओर है पाकिस्तान. 'दर्द्पुरा' गांव की दर्दभरी कहानी मानवाधिकारों के उल्लंघन की दास्ताँ है, जिसपर एक पत्रकार किरण शाहीन की विस्तृत रिपोर्ट साप्ताहिक 'शुक्रवार' (23 जनवरी 2014) में प्रकाशित हुई थी. दर्द्पुरा के दर्द की संक्षिप्त दास्तान कुछ ऐसी है.

अब यह एक उजाड़ गांव कहलाता है,
जहाँ रहती हैं 'लापता' मर्दों की अर्द्ध-विधवाएँ
जो यह भी नहीं जानती कि उनके पति जिन्दा हैं या मर गए ...
मानवाधिकारों का मारा है यह गांव ...
उन्नीस सौ नव्बे से हुई मर्दों के लापता होने की शुरुआत
हर दूसरे या तीसरे दिन किसी-न-किसी मर्द को
या तो फौज या फिर आतंकवादी उठा ले जाते !
इल्ज़ाम फौज का कि वे आतंकवादियों की मदद करते हैं
या फिर
शक़ आतंकवादी गिरोह का कि वे फौज के मुखबिर हैं ....
फौज उठाए या आतंकवादी
घर में मर्द दिखना बंद हो जाता
और परिवारजनों की आँखें इंतज़ार में सूख जाती !
एक दिन ... दो दिन ... एक बरस ... दो बरस ... पच्चीस बरस ...
लौटने का इंतज़ार अब धीरे-धीरे मरने लगा है.
अब तो गांव में
कोई अपनी बेटी भी ब्याहना नहीं चाहता
और नहीं चाहता वहां कोई रिश्ता जोड़ना ...
गांव की बेटियाँ भी बिन ब्याही बैठीं हैं !
पच्चीस साल से चल रही है लापता-राजनीति
और सियासत से जुड़े राजनेता बैठे हैं कानों में तेल डालकर !
गांव की औरतें अर्द्ध-विधवाओं की अधूरी जिन्दगी जीने को मजबूर हैं !

- केशव राम सिंघल

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