शनिवार, 18 दिसंबर 2021

निजीकरण

 निजीकरण

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निजीकरण और राष्ट्रीयकरण की बहस बहुत पुरानी है। कुछ लोग निजीकरण को और कुछ लोग राष्ट्रीयकरण को देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर मानते हैं। पूरा संसार इस समय पूंजीवाद की गिरफ्त में है और हर जगह आपको निजीकरण की बातें सुनने को मिलेगी। वर्तमान प्रधानमंत्री निजीकरण के पक्के समर्थक हैं। उनका मानना है और वे कहते भी हैं कि व्यवसाय करना सरकार का काम नहीं है।

सभी को यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि इस समय केंद्र सरकार रणनीतिक क्षेत्रों में कुछ सार्वजनिक उपक्रमों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों में सरकारी इकाइयों का निजीकरण करने को प्रतिबद्ध है। साथ ही केंद्र सरकार विनिवेश पर ज्यादा ध्यान दे रही है। सरकारी बैंकों में हिस्सेदारी बेचकर सरकार राजस्व को बढ़ाना चाहती है। इसी साल वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में एलान किया था कि दो सरकारी बैंकों और एक जनरल इंश्योरेंस कंपनी का निजीकरण किया जाएगा। पर सरकार ने यह घोषित नहीं किया है कि किन बैंकों की वह पूरी हिस्सेदारी या कुछ हिस्सा बेचने वाली है। हालांकि बैंकों के नामों की औपचारिक घोषणा नहीं हुई है। लेकिन चार बैंकों (बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ़ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक और सेन्ट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया) के लगभग एक लाख तीस हज़ार कर्मचारियों के साथ ही दूसरे सरकारी बैंकों में भी इस चर्चा से खलबली मची हुई है।

ऐसा नहीं है कि विभिन्न क्षेत्रों में निजीकरण की अनुमति या प्रक्रिया केवल वर्तमान सरकार के कार्यकाल में प्रारम्भ हुई, दर असल इसकी शुरुआत काफी पहले से हो गयी थी। बैंकिंग क्षेत्र में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने 1993 में 13 नए घरेलू बैंकों को बैंकिंग गतिविधियां करने की अनुमति दी। दूरसंचार क्षेत्र में 1991 से पहले तक बीएसएनएल का एकाधिकार था। 1999 में नई टेलीकॉम नीति लागू होने के बाद निजी कंपनियां आईं। बीमा क्षेत्र में 1956 में लाइफ इंश्योरेंस एक्ट के बाद एक सितंबर 1956 को भारतीय जीवन बीमा निगम की स्थापना हुई थी। 1999 में मल्होत्रा समिति की सिफारिशों के बाद बीमा क्षेत्र में निजी क्षेत्र को अनुमति मिली। विमानन क्षेत्र में 1992 में सरकार ने खुला आसमान नीति (Open Sky Policy) बनाई और बहुत सी निजी विमानन कंपनियों ने इस क्षेत्र में कार्य प्रारम्भ किया। प्रसारण क्षेत्र में 1991 तक दूरदर्शन ही था। 1992 में पहला निजी चैनल जीटीवी शुरू हुआ। आज देश में 1000 से ज्यादा चैनल हैं।

वर्तमान में सरकार को विकास नीतियों (तथा अपने प्रचार-प्रसार) के लिए धन की आवश्यकता है, जो उसके कर-राजस्व से पूरी नहीं पड़ पा रही है, इसलिए सरकार को अपने संस्थानों का निजीकरण करने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है।

बैंकों के कर्मचारियों ने दो दिन 16 और 17 दिसंबर 2021 को हड़ताल की और हड़ताल सफल भी रही। पर क्या सरकार अपने फैसले से पीछे हटेगी? मुझे तो नहीं लगता।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद तमाम तरह के सुधार और कई बार सरकार की तरफ़ से पूंजी डाले जाने के बाद भी ज्यादातर सरकारी बैंकों की समस्याएं ख़त्म नहीं हो पाई हैं। सरकारी बैंकों में प्रबंधन (विशेषकर ऋण प्रबंधन) में कुशलता का अभाव है। पिछले तीन सालों में ही केंद्र सरकार बैंकों में डेढ़ लाख करोड़ रुपए की पूंजी डाल चुकी है और एक लाख करोड़ से ज़्यादा की रक़म रीकैपिटलाइजेशन बॉंड के ज़रिए भी दी गई है। फिर भी बैंकों की आर्थिक स्थिति में विशेष सुधार नहीं हो पा रहा।  

मेरा मानना है कि हर विकासशील देश में शिक्षा, रेल परिवहन, सड़क परिवहन, बैंकिंग, स्वास्थ्य, आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति आदि क्षेत्रों में सरकार की भागीदारी अवश्य होनी चाहिए क्योंकि बड़ी जनसंख्या के लिए निम्न आर्थिक स्थिति के कारण पूंजीवादी व्यवस्था के तहत मांग और आपूर्ति के अनुसार बाजार कीमते चुकाना संभव नहीं है तथा निजी क्षेत्रों के बैंक गरीब लोगों को कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध नहीं कराते हैं। क्या राष्ट्रीयकृत बैंकों का निजीकरण होना चाहिए? यह प्रश्न बहुत ही महत्त्व का है। एक राष्ट्रीयकृत बैंक के पूर्व-अधिकारी होने के नाते मैं नहीं चाहूँगा कि सरकारी बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो, पर सरकार की मंशा बहुत ही साफ़ है और अब निजीकरण को कोई भी नहीं रोक पाएगा। 

- केशव राम सिंघल

(यह लेखक के निजी विचार हैं। प्रतिक्रिया स्वरूप टिप्पणी आमंत्रित हैं)

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