शुक्रवार, 12 जून 2015

जाने किस उम्मीद में ....


ख्वाबों में खोजता गुजरा वो पल धुँधला है अब फिर भी,
जाने किस उम्मीद में यादों का बहाना बन जाता हूँ मैं !

जानता हूँ बदलाव जरूरी / न पा सकने का दु:ख बहुत / फिर भी,
जाने किस उम्मीद में छलकते हैं आँसू और हल्का हो जाता हूँ मैं !

दर्द है, गम है, घुटन और मुश्किलें बहुत फिर भी
जाने किस उम्मीद में हँसकर सबकुछ छुपाता हूँ मैं !

- केशव राम सिंघल

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