रविवार, 6 अप्रैल 2025

अपनी बात — अधूरा ज्ञान घातक होता है?

 अपनी बात — 

अधूरा ज्ञान घातक होता है?

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यह हम अक्सर सुनते हैं - अधूरा ज्ञान घातक होता है। यह कथन हमें सचेत करता है कि किसी विषय पर अपूर्ण जानकारी के आधार पर निर्णय लेना खतरनाक हो सकता है। यह सुझाव देता है कि हमें पूरे ज्ञान को प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए। पूरा ज्ञान पाना न केवल कठिन, बल्कि लगभग असंभव है। ज्ञान का संसार असीम है और हमारी मानवीय क्षमता सीमित। हर क्षेत्र में निरंतर नए शोध और खोजें होती रहती हैं, इसलिए किसी भी विषय पर पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है। 


यह कथन — "अधूरा ज्ञान घातक होता है" — तब सही प्रतीत होता है जब कोई व्यक्ति अपने अधूरे ज्ञान को ही पूर्ण सत्य मानकर, उस पर अंध-विश्वास करता है और उस पर आधारित निर्णय लेता है। ऐसे निर्णय प्रायः गलत साबित हो सकते हैं और हानि का कारण बन सकते हैं।


अधूरा ज्ञान होना स्वाभाविक है — हर व्यक्ति की क्षमता सीमित होती है और ज्ञान असीम होता है, इसलिए हर व्यक्ति का ज्ञान अधूरा ही होता है। वास्तव में, अधूरा ज्ञान होना स्वाभाविक है।


महत्वपूर्ण यह है - 


🔹 हम यह स्वीकार करें कि हमारा ज्ञान सीमित है।  

🔹 जिज्ञासु बने रहें और सीखने की निरंतर कोशिश करें।  

🔹 जहाँ आवश्यक हो, वहाँ विशेषज्ञों से मार्गदर्शन लें।  

🔹 सबसे अहम – अपने अधूरे ज्ञान पर अंध-विश्वास न करें।


मुख्य निष्कर्ष - अधूरा ज्ञान घातक नहीं, अधूरे ज्ञान पर अंध-विश्वास घातक हो सकता है। इसलिए ज्ञान बढ़ाओ और जिज्ञासु बनो। 


सादर,

केशव राम सिंघल ✍️

शनिवार, 5 अप्रैल 2025

दास्ताँ – 5 – गांधारी का प्रण

दास्ताँ – 5 – गांधारी का प्रण

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गांधार नरेश सुबल थे अति ज्ञानी,

राज्य समृद्ध और राजा था दानी। 

पुत्री एक जिसका रूप अनोखा, 

गांधारी नाम, सुशील, सलोना।


भविष्यवक्ता गणुधर ने जन्मपत्री खोली, 

भविष्य की गणनाएँ उसने यूँ बोलीं—

राजकुमारी का होगा उच्च विवाह, 

तप की होगी उसमें असीम चाह।


सौभाग्य और समर्पण भरपूर होगा, 

नेत्रों में ज्योति, पर तिमिर बसेगा। 

महलों में रह वह साधना करेगी, 

त्याग की मूर्ति वह हरदम रहेगी।


दीर्घायु होगी, समर्पण होगा अनूठा,

सम्पन्नता संग होगी त्याग की रूपा। 


यह सुन राजा सुबल कुछ घबराए, 

कुछ पल ठहरे, फिर हौले मुस्काए, 

भगवान की लीला भला कौन जाने,

मन समझाया, शुभ होगा यही माने। 


राजमहल में रहकर शिक्षा पाई, 

धर्म की गूढ़ता गांधारी में समाई।

सखियों संग राजकुमारी सैर को जाती, 

मंदिर में आराधना कर शीश नवाती। 


उसे लगती थी आराधना प्यारी, 

तपस्विनी सा रूप वह थी गुणकारी। 

सौंदर्य अद्वितीय, निर्मल और दिव्य,

धर्मनिष्ठा संग स्वभाव रूप भी शुभ्र।


हस्तिनापुर में,

भीष्म और विदुर विचार में डूबे, 

धृतराष्ट्र विवाह हेतु चिंतनशील हुए।

माँ अंबिका चिंता में घुली जातीं, 

वंश वृद्धि की आशा लगातीं।


धृतराष्ट्र बोले, "मैं हूँ नेत्रहीन, 

कैसे करूँ किसी का जीवन संगीन? 

न बंधन चाहूँ, न संग किसी का, 

किसे दूँ सहारा, कौन बने दिशा?"


पर अंबिका ने ठाना संकल्प, 

राजवंश का यही एक विकल्प। 

"राजा का विवाह अनिवार्य रहेगा, 

वंशज के बिना राजकुल अधूरा रहेगा।"


उधर गांधारी ने शिव चरणों में शीश नवाया, 

उसके मन में यह अद्भुत वरदान समाया  - 

"हे महादेव! कृपा बरसाओ, 

सौ पुत्रों का सुख दिखलाओ।"


तभी सखी दौड़ी आई, ख़ुशियाँ संग लाई,

"राजकुमारी, आओ, चलो, बुलावा आया। 

आया है अभी हस्तिनापुर दूत का प्रस्ताव,

कुरु राजवंश से जुड़ने का मिला है दाँव।"


राजकुमारी सकुचाई,मौन मुस्काई,

ह्रदय में उठी भावों की अंगड़ाई। 


गांधार नरेश ने किया आर्यावर्त दूत का सत्कार,

भीष्म ने सराहा गांधारी का रूप और संस्कार। 


गांधारी ने चाही प्रियतम की एक झलक, 

उसके मन में थी यही एक मात्र ललक। 

पर सुना, धृतराष्ट्र यहाँ नहीं आए, 

यह सुन कहीं सपने बिखर न जाएँ।


एक ओर गांधार, छोटा सा राज्य, 

दूजा समृद्ध आर्यवर्त का साम्राज्य। 

खुशी खुशी सुबल ने किया प्रस्ताव स्वीकार, 

धृतराष्ट्र संग गांधारी का भावी जीवन संसार।


गांधारी की मौन उदासी देख, 

प्रिय दासी आई बहुत समीप,

"अब तुम्हारा सपना साकार हुआ,

हस्तिनापुर की तुम शान बनीं।" 


गांधारी के मन में उठे घने सवाल, 

धृतराष्ट्र का स्वभाव रूप कैसा होगा? 

पर करुवंश के राजा अविवाहित रहे, 

तो वंशज बिना राज्य कैसे चलेगा?


उधर भीष्म भी सोच में पड़े थे, 

क्या सत्य छिपाना उचित है? 

गांधारी को क्या पूरा सच बतलाऊँ? 

या कुरुवंश की नाव सुरक्षित बचाऊँ?


सत्य आज नहीं तो कल खुलेगा, 

भविष्य सब कुछ सह लेगा। 

हस्तिनापुर को उत्तराधिकारी चाहिए, 

राजधर्म में मौन ही श्रेयस्कर रहेगा।


गांधारी हस्तिनापुर आ पहुँची है, 

विवाह भी संपन्न हो चुका है। 

असत्य से पर्दा उठ चुका है, 

गांधारी सत्य जान चुकी है।


विवाह में जयकार, मंत्र स्वरों की गूंज,

चारों ओर हर्ष, सुगन्धित फूलों की धूम। 

गांधारी मन ही मन व्यथित रही,

पति संग सहानुभूति में निमग्न रही।


लिया प्रण पति संग निभाने का, 

जीवन भर आंखों पर पट्टी बाँधने का। 

अब वह भी देखेगी नहीं यह संसार, 

पति संग निभाएगी हर संस्कार।


प्रजा ने सुना तो दर्शन को हुई आतुर, 

ऐसी पतिव्रता अद्भुत, अद्वितीय। 

समर्पण की पराकाष्ठा, नारी की सूरत, 

गांधारी का जीवन बना त्याग की मूरत।


प्रसंगवश  

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गांधारी धार्मिक और कर्तव्यनिष्ठ थीं। उन्होंने अपने पुत्रों से अत्यधिक प्रेम किया, किंतु दुर्योधन के प्रति उनके मोह ने उन्हें कई बार धर्मसंकट में डाल दिया। महाभारत युद्ध के बाद उन्होंने धृतराष्ट्र के साथ वन में अध्यात्म और साधना का जीवन व्यतीत किया। श्रीकृष्ण को उन्होंने अपने पुत्रों की मृत्यु के लिए उत्तरदायी माना और उनके प्रति क्रोध भी प्रकट किया। किंतु गांधारी का सबसे महान त्याग का प्रण उनकी आँखों की पट्टी थी, जिसे उन्होंने जीवनभर निभाया। 


सादर,

केशव राम सिंघल 

प्रतीकात्मक चित्र गांधार महल - साभार NightCafe 


शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

दास्ताँ - 4 - प्राचीन भारत

दास्ताँ - 4 - प्राचीन भारत 

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भारत महान देश 

विशाल और समृद्ध इतिहास 

प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और परम्पराएँ 

हड़प्पा सभ्यता से शुरू होकर 

वैदिक काल, बौद्ध और जैन प्रभाव 

और फिर मौर्य साम्राज्य के महत्वपूर्ण दौर से गुज़री। 


भारत का अतीत 

विविधता और निरंतरता का अनूठा मिश्रण 

जहाँ विभिन्न धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों ने 

सह-अस्तित्व में रहकर 

एक समृद्ध ताने-बाने को जन्म दिया।


उत्तर-पश्चिम की तरफ सिंधु घाटी में मोहनजोदड़ो - 

इस प्राचीन शहर में घर और गलियाँ  

पाँच हज़ार साल से भी ज़्यादा समय से अस्तित्व में रहे 

मोहनजोदड़ो - एक प्राचीन और सुविकसित सिंधु सभ्यता थी  

सिंधु सभ्यता  तत्कालीन मानव जीवन के रहन-सहन का प्रतिनिधित्व करती है। 


भारत की प्राचीन सभ्यता 

केवल सिंधु घाटी और वैदिक काल तक 

सीमित नहीं रही, 

बल्कि आगे बढ़ते हुए कई महान राजवंशों ने इसे समृद्ध किया।  


चंद्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में 

भारत का पहला विशाल 

मौर्य साम्राज्य (321-185 ईसा पूर्व) स्थापित हुआ।  


चाणक्य ने 

राजनीति और अर्थव्यवस्था पर

'अर्थशास्त्र' की रचना की। 


अशोक महान ने 

कलिंग युद्ध के बाद 

अहिंसा और बौद्ध धर्म को अपनाकर 

शांति और धर्म का संदेश दिया।


गुप्त साम्राज्य (319-550 ईस्वी) 

भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग 

चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के नेतृत्व में 

कला, साहित्य, विज्ञान और गणित में अद्भुत प्रगति हुई 

इसी काल में आर्यभट्ट ने 'शून्य' की अवधारणा दी 

और 

कालिदास जैसे महान साहित्यकारों ने संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया।  


दक्षिण भारत में चोल साम्राज्य (9वीं-13वीं शताब्दी) ने

मजबूत नौसैनिक शक्ति विकसित की 

और 

दक्षिण पूर्व एशिया तक 

भारतीय संस्कृति का विस्तार किया। 


चोल साम्राज्य के शासनकाल में भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ -

बृहदेश्वर मंदिर 

स्थापत्य कला का एक अनुपम उदाहरण है।  


विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ईस्वी) काल में 

दक्षिण भारत में 

कला, संगीत, मंदिर निर्माण और व्यापार 

खूब फला-फूला। 


मुगल साम्राज्य (1526-1857 ईस्वी) काल में 

बाबर से लेकर औरंगजेब तक 

मुगलों ने भारत में 

एक समृद्ध सांस्कृतिक और प्रशासनिक प्रणाली विकसित की - 

अकबर की धार्मिक सहिष्णुता, 

शाहजहाँ की स्थापत्य कला (ताजमहल) 

और 

मुगलों का विस्तारित साम्राज्य इस काल की विशेषताएँ थीं।  

 

भारत हर समय बदल रहा था 

और 

प्रगति कर रहा था। 


भारत के लोग  

फारसियों, मिस्रियों, यूनानियों, चीनी, अरबों, मध्य एशियाई और भूमध्य सागर के 

लोगों के साथ घनिष्ठ संपर्क में आए।   


भारत के लोगों ने उन्हें प्रभावित किया 

और 

भारत उनसे प्रभावित हुआ 

भारत के लोगों का  सांस्कृतिक आधार इतना मजबूत था 

कि वह लोगों को प्रभावित कर सके। 


भारत ने 

बाहरी प्रभावों को आत्मसात किया

फिर भी अपनी मूल पहचान को बनाए रखा।


हिमालय - पुराने मिथक और किंवदंतियों से बहुत निकट से जुड़ा हुआ है

हिमालय -  जिसने हमारे विचारों और साहित्य को बहुत प्रभावित किया 

पहाड़ों के प्रति हमारा प्रेम 

जीवन, शक्ति और सौंदर्य से भरपूर। 


सिंधु जिससे हमारे देश को भारत और हिंदुस्तान कहा जाता था 

और 

अब इसे इंडिया और भारत के नाम से जाना जाता है। 


बहुत सारी नदियाँ - 

गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, कावेरी, नर्मदा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा, महानदी आदि। 


भारत की सभ्यता और संस्कृति 

उत्थान और पतन 

महान और गौरवशाली इतिहास 

मनुष्यों के साहसिक कार्यों से भरपूर 

मन की खोज 

जीवन की समृद्धि और पूर्णता 

विकास और क्षय के उतार-चढ़ाव 

जीवन और मृत्यु के उतार-चढ़ाव  

प्राचीन मूर्तिकला भित्तिचित्र - 

अजंता, एलोरा, एलिफेंटा गुफाएँ 

विभिन्न स्थानों पर  सुंदर इमारतें  

जहाँ हर पत्थर 

भारत के अतीत की कहानी कहता है। 


भारत की यात्रा कभी रुकी नहीं, 

यह निरंतर प्रवाहमान रही। 


प्रत्येक सभ्यता

प्रत्येक साम्राज्य

प्रत्येक कालखंड ने 

भारत की विरासत को और अधिक समृद्ध बनाया।  


आज भी भारत 

अपने प्राचीन ज्ञान, 

सांस्कृतिक विविधता 

और 

आधुनिक प्रगति के संगम से 

आगे बढ़ रहा है। 


विज्ञान, कला, संगीत, आध्यात्मिकता, और दर्शन के क्षेत्र में 

भारत की खोज जारी है।  


संस्कृति की यह धारा 

कभी रुकी नहीं

कभी थमी नहीं

हर युग में बहती रही 

संजोती रही 

गढ़ती रही।  


सादर,

केशव राम सिंघल 


प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 


दास्ताँ - 3 - मिर्जा ग़ालिब

दास्ताँ - 3 - मिर्जा ग़ालिब

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विश्व-साहित्य में उर्दू की सबसे बुलंद आवाज़ के तौर पर

पहचाने जाने वाले

और

सबसे अधिक सुने-सुनाए जाने वाले महान शायर के तौर पर

मिर्जा ग़ालिब का नाम सबसे ऊपर आता है।

पूरा नाम - मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान

उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के एक महान शायर

इन्होने फ़ारसी कविता के प्रवाह को

हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाया।


वे उर्दू और फ़ारसी के महान शायर थे

लेकिन उनकी उर्दू शायरी को अधिक प्रसिद्धि मिली।

उनकी अधिकांश ग़ज़लें उर्दू में थीं

जबकि गद्य, जैसे 'दस्तंबू', उन्होंने फ़ारसी में लिखा।


मुग़ल काल के आख़िरी शासक

बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि

मिर्जा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर, 1797 को आगरा, उत्तर प्रदेश में

और मृत्यु 15 फ़रवरी, 1869 को दिल्ली में।


हालाँकि मिर्जा गालिब ने

सीधे तौर पर स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में नहीं लिखा

पर 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान

दिल्ली में हुई तबाही और लोगों की पीड़ा का ज़िक्र

'दस्तंबू' नाम की किताब में अपनी रचनाओं में किया

जो उन्होए फारसी में लिखी।


ग़ालिब सहिष्णुता के सिद्धांत के प्रबल समर्थक थे।


ग़ालिब आर्थिक कठिनाइयों से हमेशा जूझते रहे

विद्रोह के कारण ग़ालिब की आय के स्रोत

ब्रिटिश सरकार से मिलने वाली पेंशन

और

बहादुरशाह से मिलने वाला वजीफा

बंद हो गए थे

जिससे उन्हें आर्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ा

उनकी पूरी ज़िंदगी तंगी में गुज़री, और वे हमेशा कर्ज़ में रहे।


ग़ालिब ने फारसी भाषा में लिखी 'दस्तंबू' में लिखा -

1857 की त्रासदियों ने उन्हें और उनके शहर (दिल्ली) को असाध्य घाव दिए

उन्होंने विद्रोह का वर्णन करने के लिए

कुछ सबसे कठोर शब्दों का इस्तेमाल किया


'दस्तंबू' में ग़ालिब ने विद्रोह की विभीषिका

और

समाज की स्थिति का वर्णन किया

लेकिन पूरी तरह ब्रिटिश दृष्टिकोण के साथ

ग़ालिब सीधे तौर पर स्वतंत्रता संग्राम के पक्षधर नहीं थे

बल्कि 1857 के विद्रोह को एक त्रासदी के रूप में देखते थे

उन्होंने सामाजिक स्थिति का वर्णन किया

लेकिन राजनीतिक रूप से निष्क्रिय रहे।


ग़ालिब तटस्थ थे और उनका दृष्टिकोण ब्रिटिश सरकार के पक्ष में झुका हुआ था।


'उर्दू-ए-मुअल्ला' मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा लिखे गए खतों का संकलन है

ग़ालिब के ये पत्र उर्दू गद्य के विकास में मील का पत्थर माने जाते है

उर्दू गद्य का सहज रूप इन खतों में झलकता है

जिसमें पारंपरिक औपचारिक भाषा को छोड़कर

बोलचाल की भाषा में पत्र लिखे गए

जिससे उर्दू गद्य सरल और स्वाभाविक हो गया।


ग़ालिब के पत्रों में ग़ालिब का हास्य, व्यंग्य, दर्द, दर्शन, और उनकी संवेदनशीलता झलकती है।

वे न केवल व्यक्तिगत भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं, बल्कि समाज और राजनीति पर भी अपनी राय देते हैं।


ग़ालिब के पत्रों में साहित्यिक विचार, जीवन-दर्शन और आत्मनिरीक्षण देखने को मिलता है।

ग़ालिब के पत्रों को पढ़कर उनके विचारों की गहराई और उनके व्यक्तित्व की अनूठी झलक मिलती है।

ग़ालिब अपने पत्रों के बारे में कहते हैं -

"मैंने अपने पत्रों को बातचीत बना दिया है…

दोस्ती और आत्मीयता का एक जरिया

जो इन्हें पढ़ेगा

समझेगा कि मुझसे बातें कर रहा है।"


ग़ालिब के ख़त

न केवल उनके युग के दस्तावेज़ हैं

बल्कि उर्दू साहित्य का एक बहुमूल्य ख़ज़ाना भी हैं

इन्हें पढ़कर हमें उनके समय की परिस्थितियों

और

उनके व्यक्तित्व को समझने का अवसर मिलता है।


उनके लिखे पत्रों में उनका दुःख और निराशा झलकती है।


मिर्ज़ा ग़ालिब की चुनी हुईं रचनाएँ -


(1) ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता, अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि हमारी क़िस्मत में यह नहीं लिखा था कि हमें अपने प्रिय का सानिध्य (मिलन) मिले। अगर हम और जीते रहते, तो बस यही इंतज़ार करते रहते। इस रचना में ग़ालिब ने प्रेम, विछोह और नियति की मजबूरी को व्यक्त किया है।


(2) दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यों, रोएंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि दिल कोई पत्थर (संग) और ईंट (ख़िश्त) तो नहीं है, जो दर्द महसूस न करे। जब भावनाएँ उमड़ती हैं, तो आँसू आना स्वाभाविक है। इस रचना में मानवीय संवेदनाओं की कोमलता को दर्शाया गया है।


(3) हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि इंसान की इच्छाएँ अनंत होती हैं। एक इच्छा पूरी होती नहीं कि दूसरी जन्म ले लेती है। यह रचना जीवन की असंतुष्टि और अपूर्णता को दर्शाती है।


(4) बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि यह दुनिया बच्चों के खेलने का मैदान (बाज़ीचा) है। यहाँ हर दिन कुछ नया तमाशा होता रहता है, मानो यह सब एक खेल हो। ग़ालिब यहाँ जीवन की नश्वरता और उसकी असारता को प्रकट करते हैं।


(5) न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता, डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि जब कुछ नहीं था, तब भी ईश्वर था। यदि कुछ भी नहीं होता, तब भी ईश्वर की सत्ता बनी रहती। लेकिन जैसे ही अस्तित्व आया, समस्याएँ भी आईं। ग़ालिब की यह रचना दार्शनिक विचारों को प्रकट करती है।


ग़ालिब की शायरी का आज भी भारतीय साहित्य और सिनेमा में व्यापक प्रभाव है। उनके कई शेर फिल्मों और ग़ज़लों में इस्तेमाल किए जाते हैं, जिससे उनकी लोकप्रियता आज भी बनी हुई है।


सादर,

केशव राम सिंघल

साभार गूगल - मिर्ज़ा ग़ालिब छायाचित्र