प्रेम - प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक
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प्रतीकात्मक चित्र - प्रेम का यह दृश्य—प्राकृतिक आकर्षण, सामाजिक बंधन, और आध्यात्मिक शांति का संगम - प्राकृतिक प्रेम का सौंदर्य, जो दिलों को चाँदनी में जोड़ता है। - साभार NightCafe
प्रीत, प्रेम, प्यार, मोहब्बत—नाम अनेक, पर भाव एक। कहावत है, 'प्रीत न माने जात-पात,' क्योंकि प्रेम न धर्म देखता है, न जाति, केवल दिलों का मेल देखता है। यह सामाजिक बंधनों, प्राकृतिक आकर्षण, और आध्यात्मिक भक्ति का संगम है। इस सदी के पहले और दूसरे दशक में स्वच्छंद प्रेम के मसीहा कहे जाने वाले पटना (बिहार) के डॉ. मटुक नाथ प्रेम को सामाजिक और प्राकृतिक प्रेम में बाँटते हैं, पर भगवद्गीता हमें आध्यात्मिक प्रेम की राह भी दिखाती है, जो निष्काम भक्ति में खिलता है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण निष्काम भक्ति को सर्वोच्च प्रेम का रूप बताते हैं, जो बंधनों से मुक्त करता है। आध्यात्मिक प्रेम आत्मा को ईश्वर से जोड़ता है। प्रेम केवल भावना नहीं, बल्कि कविता की तरह एक अभिव्यक्ति भी है। कबीर, मीराबाई ने आध्यात्मिक प्रेम को सामाजिक और प्राकृतिक बंधनों से परे एक सार्वभौमिक अनुभव के रूप में चित्रित किया है। एक प्रश्न हमारे सामने है, क्या प्रेम समाज के बंधनों और आत्मा की मुक्ति का संतुलन है?
प्रतीकात्मक चित्र - आध्यात्मिक प्रेम - आध्यात्मिक प्रेम, जो आत्मा को ईश्वर से जोड़ता है - साभार NightCafe - क्या आपने कभी आध्यात्मिक प्रेम की शांति अनुभव की?
सामाजिक प्रेम विवाह जैसे बंधनों में पनपता है, जो कभी जाति-धर्म से बँधा होता है, तो कभी आपसी समझ से खिलता है। यह परिवार की स्थापना, बच्चों के पालन-पोषण, और सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन का आधार बनता है। हालांकि, यह हमेशा जातिवादी या धर्म आधारित नहीं होता; कई सामाजिक प्रेम संबंध आपसी समझ और साझा मूल्यों पर टिके होते हैं। हालाँकि, दहेज जैसी कुरीतियाँ सामाजिक प्रेम को बोझिल बना सकती हैं।
प्राकृतिक प्रेम 'वसुधैव कुटुंबकम' का साकार रूप है, जो स्वतंत्रता और भावनात्मक मेल से पनपता है। यह बीज तब विशाल वृक्ष बनता है, जब सामाजिक जिम्मेदारियों से संतुलित हो। जैसे, मीराबाई का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम स्वच्छंद था, पर उन्होंने सामाजिक मर्यादाओं का भी खयाल रखा। आज के युग में, अंतरजातीय प्रेम विवाह प्राकृतिक प्रेम का प्रतीक हैं।
प्राकृतिक प्रेम किसी धर्म या जाति का नहीं होता। प्राकृतिक प्रेम वासना को स्वाभाविक मानता है, उसका सम्मान करता है, पर सामाजिक प्रेम में वासना को अक्सर दबाया या निंदित किया जाता है। फ्रायड वासना को मानव स्वभाव का हिस्सा बताते हैं। कामसूत्र वासना को जीवन का अभिन्न अंग मानता है, पर इसे प्रेम और नैतिकता के साथ संतुलित करने की सलाह देता है। प्रेम मन का राग है, वासना शरीर का; दोनों का मेल ही सच्चा प्रेम बनाता है। हालाँकि, वासना का असंतुलन, जैसे यौन शोषण, सामाजिक असमानताओं और नैतिक विचलन से उपजता है।
वासना का सम्बन्ध शरीर से है, जबकि प्रेम का सम्बन्ध शरीर से ज्यादा मन से है। भावपूर्ण प्रेम उम्र को पार कर जाता है, एक-दूसरे की जाति या धर्म को बीच में रोड़ा नहीं बनने देता। सामाजिक प्रेम कभी-कभी पारंपरिक संरचनाओं को बनाए रखने की चिंता करता है, जबकि प्राकृतिक प्रेम इन बंधनों को चुनौती देता है, इसलिए प्राकृतिक प्रेम का पारंपरिक संरचनाएँ विरोध करता है।
प्रेम मानव स्वभाव का सहज और बहुआयामी पहलू है। यह विभिन्न रूपों में—सामाजिक, प्राकृतिक, आध्यात्मिक—प्रकट होता है और व्यक्तिगत अनुभवों व परिस्थितियों के आधार पर विकसित होता है। प्रेम माता-पिता और बच्चों के बीच सामाजिक बंधन के रूप में, दो व्यक्तियों के बीच प्राकृतिक आकर्षण के रूप में, या भक्ति के रूप में ईश्वर के प्रति समर्पण के रूप में प्रकट हो सकता है।
कई लोग सामाजिक प्रेम के इस बंधन को पारिवारिक स्थिरता और जिम्मेदारियों के लिए स्वीकार करते हैं। आज का युग प्रेम को नए रंग दे रहा है—लिव-इन रिलेशनशिप, समलैंगिक प्रेम, और ऑनलाइन डेटिंग स्वतंत्रता की राह दिखाते हैं, पर सामाजिक स्वीकार्यता की चुनौती बनी हुई है। सामाजिक प्रेम स्थिरता देता है, प्राकृतिक प्रेम स्वतंत्रता, और आध्यात्मिक प्रेम मुक्ति। प्रेम बंधन नहीं, बल्कि दिलों का सेतु है, जो समाज, आत्मा, और ईश्वर को एक सूत्र में बाँधता है। सामाजिक प्रेम हमें स्थिरता और जिम्मेदारी देता है, जबकि प्राकृतिक प्रेम हमें स्वतंत्रता और भावनात्मक गहराई। एक संतुलित जीवन में दोनों का स्थान है। आज के दौर में हम देख रहे हैं और ऐसे बहुत से उदाहरण हमारे सामने हैं, आज का युवा परम्परागत सामाजिक बंधनों को तोड़कर अंतरजातीय प्रेम विवाह कर रहा है, लेकिन अपने परिवारों को जोड़ने के लिए सामाजिक प्रेम की जिम्मेदारियों को भी अपना रहा है। यह प्राकृतिक प्रेम का सामाजिक प्रेम के साथ सुन्दर संयोजन लगता है। क्यों न प्रेम को हम हर रूप में स्वीकार करें?
सादर,
केशव राम सिंघल
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