शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

दास्ताँ - 3 - मिर्जा ग़ालिब

दास्ताँ - 3 - मिर्जा ग़ालिब

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विश्व-साहित्य में उर्दू की सबसे बुलंद आवाज़ के तौर पर

पहचाने जाने वाले

और

सबसे अधिक सुने-सुनाए जाने वाले महान शायर के तौर पर

मिर्जा ग़ालिब का नाम सबसे ऊपर आता है।

पूरा नाम - मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान

उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के एक महान शायर

इन्होने फ़ारसी कविता के प्रवाह को

हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाया।


वे उर्दू और फ़ारसी के महान शायर थे

लेकिन उनकी उर्दू शायरी को अधिक प्रसिद्धि मिली।

उनकी अधिकांश ग़ज़लें उर्दू में थीं

जबकि गद्य, जैसे 'दस्तंबू', उन्होंने फ़ारसी में लिखा।


मुग़ल काल के आख़िरी शासक

बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि

मिर्जा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर, 1797 को आगरा, उत्तर प्रदेश में

और मृत्यु 15 फ़रवरी, 1869 को दिल्ली में।


हालाँकि मिर्जा गालिब ने

सीधे तौर पर स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में नहीं लिखा

पर 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान

दिल्ली में हुई तबाही और लोगों की पीड़ा का ज़िक्र

'दस्तंबू' नाम की किताब में अपनी रचनाओं में किया

जो उन्होए फारसी में लिखी।


ग़ालिब सहिष्णुता के सिद्धांत के प्रबल समर्थक थे।


ग़ालिब आर्थिक कठिनाइयों से हमेशा जूझते रहे

विद्रोह के कारण ग़ालिब की आय के स्रोत

ब्रिटिश सरकार से मिलने वाली पेंशन

और

बहादुरशाह से मिलने वाला वजीफा

बंद हो गए थे

जिससे उन्हें आर्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ा

उनकी पूरी ज़िंदगी तंगी में गुज़री, और वे हमेशा कर्ज़ में रहे।


ग़ालिब ने फारसी भाषा में लिखी 'दस्तंबू' में लिखा -

1857 की त्रासदियों ने उन्हें और उनके शहर (दिल्ली) को असाध्य घाव दिए

उन्होंने विद्रोह का वर्णन करने के लिए

कुछ सबसे कठोर शब्दों का इस्तेमाल किया


'दस्तंबू' में ग़ालिब ने विद्रोह की विभीषिका

और

समाज की स्थिति का वर्णन किया

लेकिन पूरी तरह ब्रिटिश दृष्टिकोण के साथ

ग़ालिब सीधे तौर पर स्वतंत्रता संग्राम के पक्षधर नहीं थे

बल्कि 1857 के विद्रोह को एक त्रासदी के रूप में देखते थे

उन्होंने सामाजिक स्थिति का वर्णन किया

लेकिन राजनीतिक रूप से निष्क्रिय रहे।


ग़ालिब तटस्थ थे और उनका दृष्टिकोण ब्रिटिश सरकार के पक्ष में झुका हुआ था।


'उर्दू-ए-मुअल्ला' मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा लिखे गए खतों का संकलन है

ग़ालिब के ये पत्र उर्दू गद्य के विकास में मील का पत्थर माने जाते है

उर्दू गद्य का सहज रूप इन खतों में झलकता है

जिसमें पारंपरिक औपचारिक भाषा को छोड़कर

बोलचाल की भाषा में पत्र लिखे गए

जिससे उर्दू गद्य सरल और स्वाभाविक हो गया।


ग़ालिब के पत्रों में ग़ालिब का हास्य, व्यंग्य, दर्द, दर्शन, और उनकी संवेदनशीलता झलकती है।

वे न केवल व्यक्तिगत भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं, बल्कि समाज और राजनीति पर भी अपनी राय देते हैं।


ग़ालिब के पत्रों में साहित्यिक विचार, जीवन-दर्शन और आत्मनिरीक्षण देखने को मिलता है।

ग़ालिब के पत्रों को पढ़कर उनके विचारों की गहराई और उनके व्यक्तित्व की अनूठी झलक मिलती है।

ग़ालिब अपने पत्रों के बारे में कहते हैं -

"मैंने अपने पत्रों को बातचीत बना दिया है…

दोस्ती और आत्मीयता का एक जरिया

जो इन्हें पढ़ेगा

समझेगा कि मुझसे बातें कर रहा है।"


ग़ालिब के ख़त

न केवल उनके युग के दस्तावेज़ हैं

बल्कि उर्दू साहित्य का एक बहुमूल्य ख़ज़ाना भी हैं

इन्हें पढ़कर हमें उनके समय की परिस्थितियों

और

उनके व्यक्तित्व को समझने का अवसर मिलता है।


उनके लिखे पत्रों में उनका दुःख और निराशा झलकती है।


मिर्ज़ा ग़ालिब की चुनी हुईं रचनाएँ -


(1) ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता, अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि हमारी क़िस्मत में यह नहीं लिखा था कि हमें अपने प्रिय का सानिध्य (मिलन) मिले। अगर हम और जीते रहते, तो बस यही इंतज़ार करते रहते। इस रचना में ग़ालिब ने प्रेम, विछोह और नियति की मजबूरी को व्यक्त किया है।


(2) दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यों, रोएंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि दिल कोई पत्थर (संग) और ईंट (ख़िश्त) तो नहीं है, जो दर्द महसूस न करे। जब भावनाएँ उमड़ती हैं, तो आँसू आना स्वाभाविक है। इस रचना में मानवीय संवेदनाओं की कोमलता को दर्शाया गया है।


(3) हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि इंसान की इच्छाएँ अनंत होती हैं। एक इच्छा पूरी होती नहीं कि दूसरी जन्म ले लेती है। यह रचना जीवन की असंतुष्टि और अपूर्णता को दर्शाती है।


(4) बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि यह दुनिया बच्चों के खेलने का मैदान (बाज़ीचा) है। यहाँ हर दिन कुछ नया तमाशा होता रहता है, मानो यह सब एक खेल हो। ग़ालिब यहाँ जीवन की नश्वरता और उसकी असारता को प्रकट करते हैं।


(5) न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता, डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि जब कुछ नहीं था, तब भी ईश्वर था। यदि कुछ भी नहीं होता, तब भी ईश्वर की सत्ता बनी रहती। लेकिन जैसे ही अस्तित्व आया, समस्याएँ भी आईं। ग़ालिब की यह रचना दार्शनिक विचारों को प्रकट करती है।


ग़ालिब की शायरी का आज भी भारतीय साहित्य और सिनेमा में व्यापक प्रभाव है। उनके कई शेर फिल्मों और ग़ज़लों में इस्तेमाल किए जाते हैं, जिससे उनकी लोकप्रियता आज भी बनी हुई है।


सादर,

केशव राम सिंघल

साभार गूगल - मिर्ज़ा ग़ालिब छायाचित्र 

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