छह माह से चल रहा किसान आंदोलन
पिछले सवा साल से कोरोना काल चल रहा है और पिछले छह माह से किसान आंदोलन भी चल रहा है। एक ऐसा आंदोलन, जो स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहला अभूतपूर्व, शांतिपूर्ण और अनुशासित है। कई बार इस आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश भी की गयी और लोगों ने यह भी सोचा कि आंदोलनकारी किसान थक-हारकर आंदोलन समाप्त कर अपने घर चले जाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं। कोरोना काल में किसी आंदोलन का लम्बे समय तक चलना किसी भी हालत में किसी के भी हित में नहीं है। आंदोलनकारी किसान कोरोना संक्रमण के ग्रसित हो सकते हैं। सरकार लम्बे समय से मौन साधे हुए है और उसने किसान संगठनों से बातचीत प्रारम्भ करने के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाए हैं।
किसानों से सम्बंधित तीन कानूनों के बारे में आंदोलनकारी किसानों का पक्ष नीचे दिया जा रहा है। आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि -
- उन्होंने केंद्र सरकार से इन कानूनों की कभी कोई मांग नहीं की।
- सरकार द्वारा लाए गए तीनों कृषि कानूनों से उनका कोई भला नहीं होने वाला।
- सरकार ने इन कानूनों को लाने से पहले किसानों से कोई चर्चा नहीं की।
- इन कानूनों के लागू होने से कुछ समय बाद मंडी व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी।
- किसान पूंजीपतियों की मनमर्जी पर अपने कृषि उत्पाद बेचने को मजबूर हो जाएंगे।
- न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रावधानों की कोई गारंटी नए कृषि कानूनों में नहीं है।
- आवश्यक वस्तु कानून के अंतर्गत किए संशोधन से जमाखोरी और कालाबाजारी बढ़ेगी।
- कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कानून किसान के पक्ष में कम दूसरे पक्षों के पक्ष में अधिक है और किसान को एक अत्यंत कमजोर पक्षकार बना दिया गया है।
- कृषि विषय राज्यों से सम्बंधित विषय है अतः केंद्र को इस सम्बन्ध में कानून बनाने से पहले राज्यों से विचार विमर्श करना चाहिए था, जो नहीं किया गया।
- केंद्र को चाहिए था कि वे कृषि से सम्बंधित मॉडल कानून बनाकर राज्यों को भेजते और राज्य उसे अपने स्तर पर पारित करते।
- स्वामीनाथन आयोग की संस्तुति के अनुसार कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम लाभकारी मूल्य तय हो, उस पर खरीदी की गारंटी हो और कोई इससे नीचे खरीदी करे तो उसे सजा का प्रावधान हो।
सरकार के अपने तर्क रहे हैं। सरकार का कहना कि लाए गए कृषि कानून किसानों के हित में हैं। उनका कहना है कि इस तरह के कानूनों की मांग अनेक अर्थशास्त्रियों और बाजार विशेषज्ञों ने की जो खुले बाजार के हिमायती हैं। सरकार का सबसे बड़ा तर्क है कि संसद को देश हित में कानून बनाने का अधिकार है। किसी भी आंदोलन द्वारा कानूनों को चुनौती देना दुर्भाग्यपूर्ण है और संसद की सर्वोच्च सत्ता को नकारने की कोशिश है।
हालांकि सरकार कह रही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद चलती रहेगी और किसानों को खुले बाजार में लाभकारी मूल्य मिलता रहेगा, पर किसानों का मानना है कि दो-चार सालों में देश के कृषि बाजार पर पूंजीपतियों का कब्जा हो जाएगा और वर्तमान मंडी व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी, उसके बाद किसानों को पूंजीपतियों की शर्तों पर अपना कृषि उत्पाद बेचना होगा।
किसान आंदोलन को चलते हुए छह से अधिक माह हो गए हैं और ऐसा लगता है कि किसान आंदोलन को समाप्त करने के लिए सरकार कोई निर्णय नहीं ले पा रही है। सरकार से यह आशा है कि आंदोलनकारी किसान संगठनों से बात प्रारम्भ करे और सभी के हित में निर्णय लेकर अन्नदाता किसानों का आंदोलन समाप्त करने में पहल करे।
इसी ब्लॉग में किसान आंदोलन और कृषि कानूनों से सम्बंधित निम्न पूर्व लेख आप क्लिक कर पढ़ सकते है :-
- तीन कृषि कानून और किसान संगठनों की मांग
- कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट का नजरिया
आशा है पाठक अपने विचार कमेंट बॉक्स में लिखेंगे।
धन्यवाद,
केशव राम सिंघल
1 टिप्पणी:
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज शुक्रवार १९ नवम्बर २०२१ को राष्ट्र के नाम संबोधन के दौरान देशवासियों से क्षमा मांगते हुए तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की। इस दौरान उन्होंने कहा, "इस महीने के अंत में शुरू होने जा रहे संसद सत्र में, हम इन तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की संवैधानिक प्रक्रिया को पूरा कर देंगे।"
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