मंगलवार, 18 मार्च 2025

दास्ताँ - 1 - अमीर ख़ुसरो

दास्ताँ - 1 - अमीर ख़ुसरो

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पूरा नाम - अबुल हसन यामुनुद्दीन अमीर ख़ुसरो

जन्म - 27 दिसंबर 1253, पटियाली गाँव, एटा जिला, उत्तर प्रदेश

निधन - अक्टूबर 1325, दिल्ली।

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अमीर ख़ुसरो भारतीय साहित्य और संगीत के अद्भुत सितारे थे।

वे चौदहवीं सदी के महान शायर, गायक, और संगीतकार थे।

वे सिर्फ एक कवि ही नहीं, बल्कि सूफियाना प्रेम और भक्ति के अद्भुत रचनाकार भी थे।

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उनकी लेखनी में भारतीयता और फारसी संस्कृति का अनूठा संगम देखने को मिलता है।

उन्हें "तोता-ए-हिंद" (भारत का तोता) कहा जाता था।

वे खड़ी बोली हिंदी के जन्मदाता भी माने जाते हैं और प्रथम मुस्लिम कवि थे, जिन्होंने हिंदी, हिंदवी और फारसी में एक साथ लिखा।

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अमीर ख़ुसरो ने विभिन्न भाषाओं में कई महत्वपूर्ण रचनाएँ लिखीं, जिनमें प्रमुख हैं -

- नूह-सिपहर – इसमें भारत की महानता का वर्णन किया गया है,

- मसनवी दुवाल-रानी-खिज्र खाँ – एक प्रेमकथा पर आधारित महाकाव्य,

- ख़ालिक़-बारी – हिंदी-फारसी शब्दों का संग्रह, जो तत्कालीन शब्दावली को दर्शाता है,

- मज्मूआ-ए-ग़ज़ल – जिसमें उनकी प्रसिद्ध ग़ज़लें संग्रहीत हैं,

- इजाज़-ए-ख़ुसरोवी – यह उनके काव्य और साहित्यिक प्रतिभा का सुंदर उदाहरण है।

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अमीर ख़ुसरो को भारतीय संगीत में कई नवाचारों के लिए जाना जाता है -

- क़व्वाली गायन शैली उन्हीं की देन है, जो आज भी सूफी संगीत का अभिन्न अंग है,

- माना जाता है कि उन्होंने ही सितार वाद्य यंत्र को विकसित किया।

- एक विशेष गायन शैली तराना को उन्होंने ईजाद किया।

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अमीर ख़ुसरो ने हिंदी में कई पहेलियाँ और मुकरियाँ लिखीं,

जो आज भी प्रसिद्ध हैं।

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मुकरियाँ

अर्थात् एक तरह की पहेली,

अर्थात् अमीर ख़ुसरो द्वारा निर्मित छंद की विधा,

जिसमें चार पंक्तियाँ होती हैं।

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उदाहरण के तौर पर पहेली और कुछ मुकरियाँ -

एक थाल मोती से भरा,

सबके सिर पर औंधा धरा।

उत्तर - आसमान और तारे

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मोरे अंगना जल बरसे, मोरा जियरा तरसे।

ऐसे दौड़ दौड़ आवे, मोती के दाने खावे।

उत्तर - मोर

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काली हूँ, पर गोरी हूँ,

रहती हूँ रसोई में,

जिसके सिर पर चढ़ जाऊँ,

वही चिल्लाए रोई-रोई।

उत्तर - तवे की रोटी

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ऐ री सखी, मैंने पहनी ऐसी चीज़,

जो टूट गई तो कोई ना रोया।

उत्तर - चूड़ी

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ऐ री सखी, मैं पानी में जाऊँ,

पर भीग ना पाऊँ।

उत्तर - मछली

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अमीर ख़ुसरो अपने आध्यात्मिक गुरु हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के परम भक्त थे।

जब उनके गुरु का निधन हुआ, तो वे इतने व्यथित हुए कि उन्होंने कहा -

गोरी सोवै सेज पर,

मुख पर डारे केस,

चल ख़ुसरो घर आपने,

रैन भई चहुँ देस।

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गुरु हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के निधन के कुछ ही समय बाद,

अक्टूबर 1325 में अमीर खुसरो का भी निधन हो गया,

उनकी इच्छा के अनुसार,

उन्हें हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के समीप दफ़नाया गया।

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अमीर ख़ुसरो न केवल एक महान कवि और संगीतकार थे,

वे भारतीय संस्कृति और परंपरा के सेतु भी थे,

उनकी कृतियाँ आज भी साहित्य प्रेमियों और संगीतज्ञों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं,

वे न केवल अपने समय में लोकप्रिय रहे,

बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक अमूल्य धरोहर छोड़ गए।

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सादर,

केशव राम सिंघल

चित्र - अमीर खुसरो साभार गूगल खोज

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