शिक्षण पद्धति
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हाल ही में मुझे स्वीडिश सरकार द्वारा उठाए गए एक साहसिक कदम के बारे में जानकारी मिली। उन्होंने डिजिटल कक्षाओं (digital classrooms) को समाप्त करने और पुस्तकों, पेंसिलों तथा नोटबुक के उपयोग से पारंपरिक शिक्षण विधियों (traditional learning methods) को फिर से लागू करने का निर्णय लिया है। यह निर्णय छात्रों के लिए अत्यंत लाभकारी साबित होगा, क्योंकि इससे उनकी मानव बुद्धिमत्ता (human intelligence) में वृद्धि होगी, जिससे वे समस्याओं का विश्लेषण (problem analysis) कर उचित निर्णय (decision-making) लेने की क्षमता विकसित कर सकेंगे।
स्वीडन के इस कदम ने शिक्षा जगत में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है। शोध बताते हैं कि अत्यधिक स्क्रीन समय (screen time) बच्चों की पढ़ने की समझ (reading comprehension), ध्यान अवधि (attention span) और आलोचनात्मक सोच (critical thinking) पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। भौतिक पुस्तकों और हस्तलिखित नोट्स के माध्यम से सीखने पर जोर देकर, छात्र अपने संज्ञानात्मक कौशल (cognitive skills) को सशक्त बना सकते हैं, स्मृति प्रतिधारण (memory retention) को बढ़ा सकते हैं और बेहतर समस्या-समाधान (problem-solving) क्षमताओं का विकास कर सकते हैं।
यह सच है कि प्रौद्योगिकी (technology) के अपने फायदे हैं, जैसे सूचना तक त्वरित पहुँच (quick access to information) और इंटरैक्टिव सीखने (interactive learning) की सुविधा, लेकिन डिजिटल उपकरणों (digital tools) पर अत्यधिक निर्भरता गहन सीखने (deep learning) और विश्लेषणात्मक सोच (analytical thinking) में बाधा बन सकती है। शोधों से यह भी सिद्ध हुआ है कि हाथ से लिखने (handwriting) से स्क्रीन पर टाइप करने (typing on screen) की तुलना में जानकारी को बेहतर ढंग से याद रखा जा सकता है।
स्वीडन का यह दृष्टिकोण शिक्षा में संतुलन (balance in education) बनाए रखने के महत्व को दर्शाता है—जहाँ आवश्यक हो, वहाँ डिजिटल उपकरणों का उपयोग किया जाए, लेकिन मूलभूत शिक्षण कौशल (fundamental learning skills) को नुकसान पहुँचाए बिना।
पारंपरिक शिक्षण क्यों महत्वपूर्ण है?
पारंपरिक शिक्षण पद्धतियाँ तार्किक तर्क (logical reasoning), समस्या-समाधान (problem-solving) और स्वतंत्र निर्णय-क्षमता (independent decision-making) जैसे आधारभूत कौशलों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यदि प्रारंभिक स्तर पर डिजिटल उपकरणों का अत्यधिक उपयोग किया जाए, तो यह छात्रों की बुनियादी गणना (basic calculations) करने और विश्लेषणात्मक निर्णय लेने (analytical decision-making) की क्षमता को प्रभावित कर सकता है।
संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता
शिक्षा प्रणाली में एक संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है—प्रौद्योगिकी को धीरे-धीरे पेश किया जाए, यह सुनिश्चित करते हुए कि यह सीखने के पूरक (supplement to learning) के रूप में कार्य करे, न कि आवश्यक संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) को बाधित करने के रूप में। यदि अधिक देश स्वीडन के दृष्टिकोण को अपनाते हैं, तो छात्रों की समग्र बुद्धिमत्ता (overall intelligence), समझ (comprehension) और निर्णय-क्षमता (decision-making ability) में उल्लेखनीय सुधार देखा जा सकता है।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि माध्यमिक स्तर (secondary level) तक की स्कूली शिक्षा पारंपरिक शिक्षण पद्धति पर आधारित होनी चाहिए, जहाँ छात्र पुस्तकों, पेंसिलों और नोटबुक का उपयोग करें, न कि केवल डिजिटल स्क्रीन पर निर्भर रहें। प्रौद्योगिकी का अत्यधिक उपयोग छात्रों को डिजिटल उपकरणों पर आश्रित बना रहा है, जिससे उनकी गणना करने की क्षमता (calculation ability) कम हो रही है और उनकी विश्लेषणात्मक सोच (analytical thinking) कमजोर हो रही है। अन्य देशों को भी इस दिशा में स्वीडन के दृष्टिकोण को अपनाने पर विचार करना चाहिए।
भारत में शिक्षण पद्धति की स्थिति
भारत में स्कूली शिक्षा की शिक्षण पद्धति काफी हद तक पारंपरिक है, हालांकि यह क्षेत्र, स्कूल के प्रकार (सरकारी, निजी, या अंतरराष्ट्रीय), और शहरी-ग्रामीण अंतर के आधार पर भिन्न होती है। पारंपरिक शिक्षण पद्धति से तात्पर्य आमतौर पर शिक्षक-केंद्रित दृष्टिकोण से है, जिसमें याद करने (rote learning), परीक्षा-उन्मुख शिक्षा (exam-oriented education), और पाठ्यपुस्तक-आधारित ज्ञान (textbook-based knowledge) पर जोर दिया जाता है। भारत में अधिकांश सरकारी और कई निजी स्कूलों में शिक्षण का तरीका अभी भी पारंपरिक है। इसमें ब्लैकबोर्ड-चॉक (blackboard-chalk) का उपयोग, एकतरफा व्याख्यान (lecture-based teaching), और छात्रों से अपेक्षा की जाती है कि वे पाठ को याद करें और परीक्षा में उस पर आधारित प्रश्नों का उत्तर दें। यह ऐतिहासिक ब्रिटिश औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली (British colonial education system) के प्रभाव की वजह से है, जिसमें अनुशासन और सैद्धांतिक ज्ञान (theoretical knowledge) पर बल दिया गया, साथ ही संसाधनों की कमी और शिक्षक-छात्र अनुपात (teacher-student ratio) का ऊँचा होना भी एक कारण है।
हालांकि, पिछले कुछ दशकों में बदलाव देखने को मिले हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) ने इस दिशा में कदम उठाए हैं, जिसमें रटने (rote learning) के बजाय अवधारणा-आधारित शिक्षा (conceptual learning), कौशल-विकास (skill development), और समग्र शिक्षा (holistic education) पर ध्यान देने की बात की गई है। निजी और अंतरराष्ट्रीय स्कूलों में, खासकर शहरी क्षेत्रों में, आधुनिक शिक्षण विधियाँ जैसे प्रोजेक्ट-आधारित शिक्षा (project-based learning), डिजिटल टूल्स (digital tools) का उपयोग, और इंटरैक्टिव कक्षाएँ (interactive classrooms) अधिक प्रचलित हो रही हैं। फिर भी, ये बदलाव पूरे देश में एकसमान नहीं हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक तरीके अभी भी हावी हैं।
संक्षेप में, भारत में स्कूली शिक्षा की शिक्षण पद्धति मुख्य रूप से पारंपरिक है, लेकिन आधुनिकीकरण (modernization) की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ रहे हैं।
आपका क्या विचार है?
मैं पाठकों से आग्रह करता हूँ कि वे अपने विचार साझा करें—भारत को किस प्रकार का शैक्षिक दृष्टिकोण (educational approach) अपनाना चाहिए?
सादर,
केशव राम सिंघल
प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe
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