शुक्रवार, 30 मई 2025

नदी तू है जीवन का प्रतीक

नदी तू है जीवन का प्रतीक

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प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

नदी — 

तुम शांत बहती हुई मधुर लगती हो 

तुम प्यासे को तृप्त कर देती हो 

पर जब गुस्से में उफनती हो 

काँप उठते हैं सभी 

घाट-किनारे सब तोड़ देती हो 

छीन लेती हो संबल 

कर देती हो असहाय।


2

नदी तू है जीवन का प्रतीक

तेरी तरह जीवन भी निरंतर प्रवाह में रहता है 

— कभी शांत, कभी उथल-पुथल भरा।


जीवन की धारा, थमती नहीं कभी

सुख-दुःख के साथ बहती हैं जीवन की धाराएँ सभी।


शांत नदी हो सकती है संतुलित मन, करुणा, और सेवा का प्रतीक 

और हो सकती है तृप्ति, परोपकार, और शांति का उदाहरण सटीक  

ठीक वैसे ही जैसे संयमित, संवेदनशील और संतुलित मनुष्य समाज को करता है पोषित। 


शांत जल जैसे संयमित विचार, जलदान जैसे सेवा भाव

उफनती नदी जैसे क्रोध, असंतुलन, विनाश। 


नदी अपने किनारों को लाँघती है  

बाढ़ तभी आती है

वैसे ही जैसे मनुष्य क्रोध, लोभ, अहंकार के वशीभूत 

पहुँचा देता है नुकसान खुद को और औरों को। 

 

जब भीतर उठे तूफान, विवेक हो जाये मौन,

तब बहेगा जीवन जल, डुबो देगा जीवन की नाव।


3

नदी — 

तेरी यात्रा होती है जैसे जीवन की यात्रा

तू पहाड़ों से निकलती है 

समतल में बहती है 

और अंत में समुद्र से मिल जाती है 

— जैसे हुआ जीवन का आरंभ (जन्म), 

प्रवाह (युवावस्था), 

और विसर्जन (मृत्यु)।


नदी — 

तू कभी चट्टानों से टकराई, कभी फूलों को छू लिया,

आखिर में सागर से मिल, तूने अपना अस्तित्व खो दिया।


हे जीवन दायित्री नदी — 

तू सिखा दे मर्यादा में मुझे बहना

तू सिखा दे बिना अभिमान के देना

तू सिखा दे विवेक के साथ उफनना। 


सादर,

केशव राम सिंघल 


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