बुधवार, 13 अगस्त 2008

तरस गया हूँ वैसे पत्रों को पाने से …..

तरस गया हूँ वैसे पत्रों को पाने से …..


मित्रों,

अब तो तरस गया हूँ वैसे पत्रों को पाने से। लाल – नीली – हरी – काली स्याही से लिखे उन पत्रों की बात ही और थी। … अब तो उनके संदेश आते भी हैं तो इमेल से या फिर एस एम् एस से …।

वे दिन भी क्या दिन थे जब हम पागल थे। विभिन्न रंगों की स्याही (और कभी कभी अपने लहू) से पत्र लिखते थे। एक-एक शब्द सजाते थे अपने उन पत्रों में, पर वो अब बात कहाँ …।

जब भी कोई लिफाफा आता तो धीरे से बिना किसी आहट के खोलते थे कि हमारे पत्र के बारे में किसी को पता ही न चले। और डाकिये का इन्तजार रोज होता था …. और तो और हम डाकिये से कहा करते कि हमारे पत्र हमें ही देना, किसी और को नहीं. डाकिया आता, हमें पत्र देता और हमसे अलग से होली-दीवाली का इनाम पाता था.

आजकल कभी-कभार कोई लिफाफा हमें डाक से या कुरियर से मिलता है तो उनमें ज्यादातर तो आफिशिअल पत्र ही होतें हैं, पत्र-पत्रिकाएं या किताबें होती हैं, पर वे पत्र अब नहीं होते जिनका हम पहले बेताबी से इन्तजार किया करते थे।

मित्रों, समय के साथ हमने भी अपने आप को बदल लिया है, पर वैसे पत्रों को पाने की तड़प अभी भी मन में रहती है …. हाँ, जब भी वैसी तड़प उठती है तो हम ही लिखने लगते हैं अपनी कापी या डायरी के पन्नो पर ….

शेष फिर कभी ….

शुभकामनाओं के साथ,

आपका,

केशव सिंघल

नोट: इस आलेख में 'हम' का अर्थ मेरे (एक वचन) से है और वर्तनी की कुछ गलतियों के लिए माफी।

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