शनिवार, 7 जून 2025

शून्य की पूर्णता

शून्य की पूर्णता

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शून्य चित्र साभार - ओपनएआई (OpenAI)


शून्य है — 

निराकार, 

निर्वात (रिक्तता), 

फिर भी है पूर्णता का आधार। 


शून्य गणित की वह संख्या है, जिसे किसी भी संख्या में जोड़ने या घटाने पर मूल संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता। शून्य शब्द संस्कृत के "śūnya" (शून्य) से आया है, जिसका अर्थ है – रिक्त, शून्यता।


100 + 0 = 100 

100 - 0 = 100 


शून्य एक अंक है जो संख्याओं के निरूपण के लिये प्रयुक्त आज की सभी स्थानीय मान पद्धतियों का अपरिहार्य प्रतीक है। इसके अलावा यह एक संख्या भी है। दोनों रूपों में गणित में इसकी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है। पूर्णांकों तथा वास्तविक संख्याओं के लिये यह योग का तत्समक अवयव (additive identity) है। 


हम सामान्यतः शून्य का प्रयोग खाली या 'कुछ नहीं' को दर्शाने के लिए करते हैं, परंतु उसी शून्य में बहुत कुछ समाहित है। यदि आप इसे गहराई से जानना चाहें, तो पहले स्वयं को जानिए। 


जब हमने शून्य को और गहराई से समझने का प्रयास किया, तो इसके निम्न अर्थ सामने आए — 


1. वह स्थान जिसमें कुछ भी न हो / खाली स्थान


2. आकाश


3. एकांत स्थान / निर्जन स्थान


4. बिंदु / बिंदी / सिफर (अरबी मूल का शब्द, जिसका अर्थ है – कुछ नहीं) 


5. अभाव / राहित्य / कुछ न होना। जैसे —तुम्हारे हिस्से में शून्य है।


6. स्वर्ग


7. विष्णु


8. ईश्वर 

कहैं एक तासों शिवे शून्य एकै। कहैं काल एकै महा विष्णु एकै। कहैं अर्थ एकै परब्रह्म जानो। प्रभा पूर्ण एकै सदा शून्य मानो।


9. कान में पहना जाने वाला एक गोलाकार आभूषण, जिसे शून्य रूप या ‘शून्य’ कहा जाता है।


शून्य की खोज भारत की एक अद्वितीय देन है। आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त जैसे गणितज्ञों ने शून्य को एक गणितीय संकल्पना के रूप में प्रस्तुत किया। ब्रह्मगुप्त (7वीं शताब्दी) ने शून्य के गणितीय नियमों को परिभाषित किया और इसे अन्य संख्याओं के साथ जोड़ने, घटाने आदि के सिद्धांत दिए। 


भारतीय दर्शन में शून्य को 'शून्यता' या निर्वाण के रूप में देखा गया है — जो न केवल अंत है, बल्कि एक नई चेतना का आरंभ भी है। बौद्ध दर्शन में ‘शून्यता’ (Śūnyatā) का तात्पर्य है कि कोई भी वस्तु स्थायी, स्वतंत्र या आत्मनिष्ठ नहीं है — सब कुछ आपसी निर्भरता से उत्पन्न होता है। यही बोध व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाता है।


शून्य और ब्रह्म (अद्वैत दृष्टिकोण) में शून्य को 'परब्रह्म' या 'पूर्णता' का प्रतीक माना गया है — "पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।" यहाँ ‘पूर्ण’ का अर्थ भी शून्य की ही भांति है — एक ऐसा खालीपन जो पूर्ण है। 


गणित में शून्य की महत्वपूर्ण भूमिका है। दशमलव पद्धति की नींव शून्य पर ही आधारित है। कंप्यूटर विज्ञान की बाइनरी प्रणाली (0 और 1) में भी शून्य एक मूलभूत आधार है। इसके बिना आधुनिक विज्ञान, गणित और तकनीक की कल्पना नहीं की जा सकती। 


पश्चिमी दुनिया में शून्य की अवधारणा 9वीं शताब्दी में अरब गणितज्ञों के माध्यम से पहुँची, जिन्होंने भारतीय अंकों और दशमलव पद्धति को अपनाया।


सार रूप में कह सकते हैं कि शून्य में कुछ नहीं, पर शून्य में हैं बहुत कुछ। 


शून्य —

जहाँ कुछ नहीं, वहीं से बहुत कुछ शुरू होता है।

यह खाली नहीं, बल्कि अनंत की संभावना है।


गणित में संतुलन,

दर्शन में मौन,

और अध्यात्म में मोक्ष —

सब समाहित है शून्य में।


प्रसिद्द कथन - "Zero is not nothing; it is the beginning of everything." (शून्य कुछ नहीं नहीं है; यह सब कुछ का आरंभ है।) 


 शून्य —

जहाँ अंत है, वहीं आरंभ भी है। 

जहाँ मौन है, वहीं संगीत भी है।

जहाँ खालीपन है, वहीं समग्रता है।


शून्य — नकार नहीं, बल्कि अनंत की ओर पहला कदम है।


सादर, 

केशव राम सिंघल 



शुक्रवार, 6 जून 2025

क्रिप्टोकरेंसी पर चीन का सख्त रुख - वैश्विक प्रभाव और भारत की नीतियाँ

क्रिप्टोकरेंसी पर चीन का सख्त रुख - वैश्विक प्रभाव और भारत की नीतियाँ

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क्रिप्टोकरेंसी का प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 

चीन ने क्रिप्टोकरेंसी (बिटकॉइन, इथेरियम, सोलाना,डॉजकॉइन, एडीए आदि) पर कड़े प्रतिबंध लागू कर दिए हैं। मई 2025 तक की जानकारी के आधार पर, चीन ने न केवल क्रिप्टोकरेंसी ट्रेडिंग और माइनिंग पर प्रतिबंध लगाया है, बल्कि व्यक्तिगत क्रिप्टोकरेंसी होल्डिंग को भी अवैध घोषित कर दिया है। कुछ अपुष्ट रिपोर्टों में दावा किया गया है कि चीन में क्रिप्टो वॉलेट पर कार्रवाई की गई है, लेकिन ब्लॉकचेन की प्रकृति के कारण यह तकनीकी रूप से चुनौतीपूर्ण है। फिर भी, चीन सरकार ने क्रिप्टोकरेंसी से संबंधित गतिविधियों पर सख्त निगरानी और दंडात्मक कार्रवाइयाँ शुरू कर दी हैं, जिसमें मनी लॉन्ड्रिंग और अवैध वित्तीय गतिविधियों को रोकने के लिए कदम शामिल हैं। चीन में क्रिप्टोकरेंसी की माइनिंग पर भी प्रतिबन्ध लग गया है।  


चीन द्वारा क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध के कारण


चीन में क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध लगाने के पीछे निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं - 


- मनी लॉन्ड्रिंग और अवैध गतिविधियाँ - चीन सरकार का मानना है कि क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग मनी लॉन्ड्रिंग, कर चोरी, और आतंकवादी वित्तपोषण जैसी अवैध और अपराध गतिविधियों के लिए हो सकता है, क्योंकि यह विकेन्द्रीकृत और गुमनाम है।


- वित्तीय स्थिरता को खतरा - क्रिप्टोकरेंसी की अस्थिरता और अनियमित प्रकृति को चीन सरकार वित्तीय प्रणाली के लिए खतरा मानती है, जो पूंजी प्रवाह और मौद्रिक नीति को प्रभावित कर सकती है।


- डिजिटल युआन को बढ़ावा - चीन अब अपनी केंद्रीकृत डिजिटल मुद्रा, डिजिटल युआन (e-CNY), को बढ़ावा देना चाहती है, जो सरकार द्वारा नियंत्रित है। क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध लगाकर, सरकार डिजिटल युआन को प्राथमिकता देना चाहती है।


- ऊर्जा खपत और पर्यावरण - क्रिप्टोकरेंसी की माइनिंग, विशेष रूप से बिटकॉइन, भारी मात्रा में ऊर्जा की खपत करता है, जो चीन के कार्बन न्यूट्रैलिटी लक्ष्यों के विपरीत है। 


चीन के क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रभाव 


चीन के क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबन्ध लगाने के फैसले का यह प्रभाव पड़ा है कि तमाम क्रिप्टोकरेंसी में गिरावट आई है। कुछ देश क्रिप्टोकरेंसी को नियमन के दायरे में ला रहे हैं, जबकि अन्य (जैसे अल सल्वाडोर) इसे अपनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं। चीन में क्रिप्टोकरेंसी की माइनिंग पर प्रतिबन्ध के कारण माइनर्स उन देशों का रुख करेंगे, जहाँ क्रिप्टोकरेंसी की माइनिंग पर प्रतिबन्ध नहीं है। 


विश्व में क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध लगाने वाले देश


विश्व में कई देशों ने क्रिप्टोकरेंसी पर पूर्ण या आंशिक प्रतिबंध लगाए हैं। निम्नलिखित कुछ प्रमुख देश हैं - 


- चीन - जैसा कि ऊपर बताया गया, क्रिप्टोकरेंसी ट्रेडिंग, माइनिंग, और होल्डिंग पर पूर्ण प्रतिबंध।

- उत्तर कोरिया - क्रिप्टोकरेंसी पर पूर्ण प्रतिबंध, क्योंकि इसे अवैध गतिविधियों से जोड़ा जाता है।

- बोलीविया - 2014 से क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध, क्योंकि यह बोलीविया केंद्रीय बैंक की नीतियों को कमजोर करता है।

- अल्जीरिया - 2018 से क्रिप्टोकरेंसी खरीद, बिक्री, और उपयोग पर प्रतिबंध।

- मोरक्को - 2017 से क्रिप्टोकरेंसी लेनदेन पर प्रतिबंध, मनी लॉन्ड्रिंग की चिंताओं के कारण।

- नेपाल - 2017 से क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध, क्योंकि नेपाल में इसे अवैध माना जाता है।

- मिस्र - 2018 में क्रिप्टोकरेंसी को गैर-कानूनी घोषित किया गया, धार्मिक और वित्तीय स्थिरता के आधार पर।

- इराक - क्रिप्टोकरेंसी लेनदेन पर प्रतिबंध, वित्तीय नियंत्रण बनाए रखने के लिए।


कुछ देशों जैसे बांग्लादेश, कतर, और सऊदी अरब में आंशिक प्रतिबंध हैं, जहाँ क्रिप्टोकरेंसी ट्रेडिंग को सीमित किया गया है, लेकिन पूर्ण प्रतिबंध नहीं है। इसके विपरीत, अल सल्वाडोर जैसे देशों ने बिटकॉइन को कानूनी मुद्रा के रूप में स्वीकार किया है। 


भारत में क्रिप्टोकरेंसी को लेकर भारत सरकार के कदम


भारत में क्रिप्टोकरेंसी का नियमन एक जटिल और विकासशील मुद्दा है। भारत सरकार ने निम्नलिखित कदम उठाए हैं -


- कोई स्पष्ट प्रतिबंध नहीं - भारत में क्रिप्टोकरेंसी पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं है, लेकिन इसे कानूनी मुद्रा के रूप में भी मान्यता नहीं दी गई है। 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने RBI द्वारा 2018 में लगाए गए क्रिप्टोकरेंसी लेनदेन पर प्रतिबंध को हटा दिया था। 


- कर व्यवस्था - 2022 के केंद्रीय बजट में, भारत सरकार ने क्रिप्टोकरेंसी से होने वाली आय पर 30% टैक्स और प्रत्येक लेनदेन पर 1% TDS (स्रोत पर कर कटौती) लागू किया। भारत सरकार का यह कदम क्रिप्टोकरेंसी को डिजिटल संपत्ति के रूप में मान्यता देता है, न कि मुद्रा के रूप में। 


- नियामक ढांचे की योजना - भारत सरकार ने 2021 में "क्रिप्टोकरेंसी और आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विनियमन विधेयक" प्रस्तावित किया था, जिसका उद्देश्य निजी क्रिप्टोकरेंसी पर प्रतिबंध और RBI द्वारा डिजिटल रुपये को बढ़ावा देना था। हालांकि, यह विधेयक अभी तक लागू नहीं हुआ है।


- मनी लॉन्ड्रिंग नियम - 2023 में, भारत में क्रिप्टोकरेंसी ट्रेडिंग को मनी लॉन्ड्रिंग निवारण अधिनियम (PMLA) के तहत लाया गया, जिसके तहत एक्सचेंजों को केवाईसी (KYC) और लेनदेन की निगरानी करनी होती है। 


- विदेशी एक्सचेंजों पर कार्रवाई - 2024 में, वित्त मंत्रालय ने बायनेंस जैसे कुछ विदेशी क्रिप्टो एक्सचेंजों के वेबसाइट (URL) पर प्रतिबंध लगाया, क्योंकि वे भारतीय नियमों का पालन नहीं कर रहे थे। 


- भारतीय रिजर्व बैंक की सतर्कता - भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) और गवर्नर शक्तिकांत दास ने क्रिप्टोकरेंसी को वित्तीय स्थिरता के लिए खतरा बताया है और इसे "जुआ" की तरह माना है। भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) डिजिटल रुपये (CBDC) के पायलट प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है।


सार 


चीन ने क्रिप्टोकरेंसी पर सख्त प्रतिबंध लगाए हैं, जो वित्तीय नियंत्रण, मनी लॉन्ड्रिंग की रोकथाम, और डिजिटल युआन को बढ़ावा देने की रणनीति का हिस्सा है। विश्व में कई अन्य देशों ने भी क्रिप्टोकरेंसी पर पूर्ण या आंशिक प्रतिबंध लगाए हैं। भारत में क्रिप्टोकरेंसी का नियमन प्रारंभिक चरण में है। कराधान और मनी लॉन्ड्रिंग नियमों के माध्यम से सरकार इसे नियंत्रित करने की दिशा में काम कर रही है। भारतीय रिजर्व बैंक (RBI)  का डिजिटल रुपया भविष्य में क्रिप्टोकरेंसी के विकल्प के रूप में उभर सकता है।


सादर,

केशव राम सिंघल 


(आलेख-लेखक सेवानिवृत बैंक अधिकारी हैं तथा 'बिटकॉइन क्या है' किंडल पुस्तक के लेखक हैं, जो अमेजन पर उपलब्ध है।) 


गुरुवार, 5 जून 2025

🌿पर्यावरण के लिए सकारात्मक परिवर्तन आवश्यक🌿

 🌿पर्यावरण के लिए सकारात्मक परिवर्तन आवश्यक🌿











आज बच्चे हों या बड़े – सभी पर्यावरण संरक्षण की बात करते हैं। इस विषय में जानकारी की कोई कमी नहीं है, लेकिन व्यवहारिक अमल अत्यंत सीमित है। यह हमारी उदासीन मानसिकता को दर्शाता है कि जिस विषय पर हम सजग हैं, उसे केवल चर्चाओं और औपचारिक आयोजनों तक सीमित कर देते हैं। यह स्थिति निश्चित ही चिंता का विषय है।


आज विश्व पर्यावरण दिवस है। समाचार-पत्रों में पर्यावरण संबंधी लेख, विचार और आकंड़े प्रकाशित हो रहे हैं। मंचों पर भाषण हो रहे हैं। हम सब पर्यावरण के प्रति जागरूक दिखते हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हमने स्वयं अपने जीवन में कोई बदलाव किया है? क्या हमने प्लास्टिक, पेट्रोल, बिजली जैसी संसाधनों की खपत को घटाने का प्रयास किया है?


सच्चाई यह है कि हम में से अधिकांश केवल 'पर्यावरण पर उपदेश' देने तक सीमित हैं। अब समय आ गया है कि हम केवल विचार और ज्ञान तक न रुकें, बल्कि अपने व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन लाएँ।


विश्व पर्यावरण दिवस की **सार्थकता** तभी सिद्ध होगी, जब हम व्यक्तिगत, सामाजिक और नीति-निर्माण स्तर पर ठोस कदम उठाएँ। उदाहरण स्वरूप -


व्यक्तिगत स्तर पर - 


* पुनः उपयोग (Reuse), पुनः चक्रण (Recycle) और ऊर्जा संरक्षण जैसे उपाय अपनाएँ।

* बिजली, पानी और ईंधन की बचत करें।

* प्लास्टिक के प्रयोग से बचें।


✅  सामाजिक स्तर पर -


* स्थानीय स्तर पर जन-जागरण करें।

* स्कूलों, संस्थानों व कॉलोनियों में वृक्षारोपण व पर्यावरणीय गतिविधियाँ आयोजित करें।

* समाज में सकारात्मक वातावरण निर्माण करें।


नीति-निर्माण स्तर पर - 


* सरकारों पर पर्यावरण हितैषी नीतियाँ लागू करने का दबाव बनाएँ।

* विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन पर बल दें।


हमें यह समझना होगा कि पर्यावरण संरक्षण कोई एक दिन का उत्सव नहीं, बल्कि 'हर दिन का जीवन मूल्य' है। पर्यावरण संरक्षण केवल एक "दिन" का मुद्दा नहीं है, यह हमारे "हर दिन" का व्यवहार बनना चाहिए। विचारों को कर्म में बदलना ही सच्चा पर्यावरण प्रेम है। जब विचारों को व्यवहार में ढाला जाएगा, तभी हम वास्तव में पर्यावरण प्रेमी कहला सकेंगे। 


🌱आइए, इस पर्यावरण दिवस पर हम संकल्प लें कि हम अपने व्यवहार से धरती माँ का ऋण चुकाने की दिशा में सार्थक कदम उठाएँगे।


विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ,

केशव राम सिंघल


शुक्रवार, 30 मई 2025

नदी तू है जीवन का प्रतीक

नदी तू है जीवन का प्रतीक

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प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

नदी — 

तुम शांत बहती हुई मधुर लगती हो 

तुम प्यासे को तृप्त कर देती हो 

पर जब गुस्से में उफनती हो 

काँप उठते हैं सभी 

घाट-किनारे सब तोड़ देती हो 

छीन लेती हो संबल 

कर देती हो असहाय।


2

नदी तू है जीवन का प्रतीक

तेरी तरह जीवन भी निरंतर प्रवाह में रहता है 

— कभी शांत, कभी उथल-पुथल भरा।


जीवन की धारा, थमती नहीं कभी

सुख-दुःख के साथ बहती हैं जीवन की धाराएँ सभी।


शांत नदी हो सकती है संतुलित मन, करुणा, और सेवा का प्रतीक 

और हो सकती है तृप्ति, परोपकार, और शांति का उदाहरण सटीक  

ठीक वैसे ही जैसे संयमित, संवेदनशील और संतुलित मनुष्य समाज को करता है पोषित। 


शांत जल जैसे संयमित विचार, जलदान जैसे सेवा भाव

उफनती नदी जैसे क्रोध, असंतुलन, विनाश। 


नदी अपने किनारों को लाँघती है  

बाढ़ तभी आती है

वैसे ही जैसे मनुष्य क्रोध, लोभ, अहंकार के वशीभूत 

पहुँचा देता है नुकसान खुद को और औरों को। 

 

जब भीतर उठे तूफान, विवेक हो जाये मौन,

तब बहेगा जीवन जल, डुबो देगा जीवन की नाव।


3

नदी — 

तेरी यात्रा होती है जैसे जीवन की यात्रा

तू पहाड़ों से निकलती है 

समतल में बहती है 

और अंत में समुद्र से मिल जाती है 

— जैसे हुआ जीवन का आरंभ (जन्म), 

प्रवाह (युवावस्था), 

और विसर्जन (मृत्यु)।


नदी — 

तू कभी चट्टानों से टकराई, कभी फूलों को छू लिया,

आखिर में सागर से मिल, तूने अपना अस्तित्व खो दिया।


हे जीवन दायित्री नदी — 

तू सिखा दे मर्यादा में मुझे बहना

तू सिखा दे बिना अभिमान के देना

तू सिखा दे विवेक के साथ उफनना। 


सादर,

केशव राम सिंघल 


मंगलवार, 13 मई 2025

महाभारत से सीख - शांति की ओर

महाभारत से सीख - शांति की ओर

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प्रतीकात्मक चित्र - साभार - ओपनएआई (OpenAI) 

कई बार चुप्पी व्यक्ति को कमजोर नहीं, बल्कि भीतर से मजबूत बनाती है, सह लेने की शक्ति के साथ। जब बात आपसी रिश्तों की होती है, तब कई बार चुप रह जाना एक विवशता बन जाती है, न कि विकल्प।


महाभारत हमें सिखाता है कि सत्य और धर्म के लिए संघर्ष आवश्यक है। 

परंतु अंत क्या हुआ? 

भले ही वह युद्ध धर्म की रक्षा के लिए था, लेकिन उसका परिणाम केवल विनाश रहा। 

महाभारत युद्ध में लाखों योद्धा मारे गए, और अंत में केवल अट्ठारह योद्धा — कौरवों के तीन और पांडवों के पंद्रह — ही जीवित बचे।


स्पष्ट है कि कोई भी युद्ध, चाहे कितना भी धर्मयुक्त क्यों न हो, अंततः हानि ही लाता है। 

इसलिए, यदि बड़े नुकसान की आशंका हो, तो छोटे नुकसान को सह लेना कहीं अधिक बुद्धिमत्ता भरा निर्णय हो सकता है। 


स्वयं को कमजोर मान लेना, स्वयं की हार मान लेना और अपना नुकसान सह लेना ठीक हो सकता है, यदि अन्य लोग खुश रह सकें और अपने को विजयी होने का अनुभव कर सकें।


कई बार ऐसा लगता है कि विवादों में उलझकर अपनी ऊर्जा नष्ट करने से बेहतर है कि अपनी ऊर्जा को किसी सकारात्मक दिशा में लगाया जाए, जहाँ उसका परिणाम इतना संतोषजनक हो कि अपना नुकसान नगण्य प्रतीत हों।


सादर,

केशव राम सिंघल 



शुक्रवार, 2 मई 2025

लघुकथा - पूर्वज

लघुकथा

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पूर्वज 

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प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 

मुन्ना एक दिन अपने पापा से पूछने लगा, “पापा, श्राद्ध का मतलब क्या होता है?” पापा कुछ कह पाते, इससे पहले ही दादी ने मुस्कुराते हुए बात संभाल ली — “बेटा, श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा। अपने देवताओं, परिवार, वंश परंपरा, संस्कृति और इष्ट के प्रति श्रद्धा रखना ही श्राद्ध है। हमारे पूर्वज, जो शरीर त्यागकर इस लोक से चले गए हैं, वे कहीं न कहीं किसी रूप में विद्यमान होते हैं। उनके तृप्ति और उन्नति के लिए जो हम श्रद्धा और भाव से अर्पण करते हैं, वही श्राद्ध कहलाता है। यह हर वर्ष एक तय दिन पर किया जाता है।”


पापा थोड़े राहत में मुस्कराए। सोचने लगे — चलो, एक सवाल का जवाब तो अम्मा ने दे ही दिया, अब ये दोनों आपस में बात करते रहेंगे।


कुछ ही देर बाद दादी फिर बोलीं, “हर साल तेरे दादाजी का श्राद्ध आश्विन कृष्णपक्ष की दशमी को पड़ता है। पिछले महीने ही तो मनाया था, जब तेरे पापा कौए को खाना खिलाने के लिए देर तक छत पर बैठे थे।” यह कहते हुए दादी की आँखें नम हो गईं। यादें ताज़ा हो उठीं — पिचहत्तर की उम्र में दादाजी चल बसे थे। दादी तब अठारह की थीं, जब उनका विवाह हुआ था। जीवन का लंबा साथ एकाएक छूट गया था।


मुन्ना ने सहजता से कहा, “हाँ दादी, आपने बताया था — श्राद्ध में हम अपने पूर्वजों को याद करते हैं और कौए को भोजन कराते हैं।” दादी ने आगे समझाया, “बिलकुल, कौए को यमराज का प्रतीक माना जाता है। ऐसा विश्वास है कि अगर कौआ श्राद्ध का भोजन ग्रहण कर ले, तो वह अर्पण हमारे पूर्वजों तक पहुँच जाता है। उनकी आत्मा को तृप्ति मिलती है और यमराज भी प्रसन्न होते हैं।”


कुछ देर सोचकर मुन्ना बोला, “दादी, कमाल है न! हम यहाँ कौए को खिलाते हैं, और वो खाना किसी और लोक में पहुँच जाता है। लेकिन दादी, ये खाना वहाँ कैसे और कब पहुँचता है?” दादी मुस्कराईं। उनके चेहरे पर अनुभव और अपनापन एक साथ झलक रहा था। “बेटा, ये कैसे और कब पहुँचता है, यह तो मैं नहीं जानती। लेकिन यह बहुत पुरानी और अद्भुत तकनीक है। जैसे तेरी बुआ अमेरिका से कोई फोटो मोबाइल से भेजती हैं, और वो कुछ ही सेकंड में तुझे यहाँ मिल जाती है। वैसे ही ये भी एक अदृश्य, आत्मिक तकनीक है — भावों की तकनीक।”


मुन्ना चुप हो गया। उसके मन में जिज्ञासा के साथ अब श्रद्धा का एक नया बीज अंकुरित हो चुका था।


✍🏻 केशव राम सिंघल 


टिप्पणी - यह लघुकथा भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं को सरल शब्दों में प्रस्तुत करती है और पीढ़ियों के संवाद और भावनात्मक रिश्तों को भी सहज रूप से उजागर करती है। 


गुरुवार, 1 मई 2025

भगवान् – पंचतत्त्वों में व्याप्त परम सत्ता

भगवान् – पंचतत्त्वों में व्याप्त परम सत्ता

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भगवान् का चित्र - साभार NightCafe 

भगवान् = भ + ग + व + आ + न


भ – भूमि (पृथ्वी)

ग – गगन (आकाश)

व – वायु (हवा)

आ – आग (अग्नि)

न – नीर (जल) 


इन पंचमहाभूतों (पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि, जल) से सारा संसार बना है, और जो इन तत्वों का स्वामी और सृष्टिकर्ता है — वही भगवान् है।


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भगवान् है पंचतत्त्वों का अधिपति

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भ से भूमि, देती माँ जैसी ममता,

और देती जीवन को  गति-विधा।

ग है गगन, नभ का विस्तार,

अंतरिक्ष जैसा अद्भुत संसार।


व है वायु, प्राण बनती,

हर जीव में वह थमती।

आ है अग्नि, ऊर्जा की धारा,

सृजन-विनाश का किनारा।


न से नीर, जीवन का मूल्य,

इसके बिना सब कुछ शून्य।


इन पंचतत्त्वों से बना यह संसार,

इनके रचयिता हैं हमारे भगवान्।

सृष्टि के स्वरूप में जो समाया,

हर रूप में हमने प्रभु को पाया।


धरा, गगन, जल, अग्नि, पवन,

इनमें बसा है ईश्वर सदा अनंत।

नमन उस सत्ता को बारम्बार,

जो करे सृजन, पालन, संहार।


सादर, 

केशव राम सिंघल 



मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

प्रेम - प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक

प्रेम -  प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक

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प्रतीकात्मक चित्र - प्रेम का यह दृश्य—प्राकृतिक आकर्षण, सामाजिक बंधन, और आध्यात्मिक शांति का संगम - प्राकृतिक प्रेम का सौंदर्य, जो दिलों को चाँदनी में जोड़ता है। - साभार NightCafe 

प्रीत, प्रेम, प्यार, मोहब्बत—नाम अनेक, पर भाव एक। कहावत है, 'प्रीत न माने जात-पात,' क्योंकि प्रेम न धर्म देखता है, न जाति, केवल दिलों का मेल देखता है। यह सामाजिक बंधनों, प्राकृतिक आकर्षण, और आध्यात्मिक भक्ति का संगम है। इस सदी के पहले और दूसरे दशक में स्वच्छंद प्रेम के मसीहा कहे जाने वाले पटना (बिहार) के डॉ. मटुक नाथ प्रेम को सामाजिक और प्राकृतिक प्रेम में बाँटते हैं, पर भगवद्गीता हमें आध्यात्मिक प्रेम की राह भी दिखाती है, जो निष्काम भक्ति में खिलता है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण निष्काम भक्ति को सर्वोच्च प्रेम का रूप बताते हैं, जो बंधनों से मुक्त करता है। आध्यात्मिक प्रेम आत्मा को ईश्वर से जोड़ता है। प्रेम केवल भावना नहीं, बल्कि कविता की तरह एक अभिव्यक्ति भी है। कबीर, मीराबाई ने आध्यात्मिक प्रेम को सामाजिक और प्राकृतिक बंधनों से परे एक सार्वभौमिक अनुभव के रूप में चित्रित किया है। एक प्रश्न हमारे सामने है, क्या प्रेम समाज के बंधनों और आत्मा की मुक्ति का संतुलन है?

 









प्रतीकात्मक चित्र - आध्यात्मिक प्रेम - आध्यात्मिक प्रेम, जो आत्मा को ईश्वर से जोड़ता है - साभार NightCafe क्या आपने कभी आध्यात्मिक प्रेम की शांति अनुभव की? 

सामाजिक प्रेम विवाह जैसे बंधनों में पनपता है, जो कभी जाति-धर्म से बँधा होता है, तो कभी आपसी समझ से खिलता है। यह परिवार की स्थापना, बच्चों के पालन-पोषण, और सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन का आधार बनता है। हालांकि, यह हमेशा जातिवादी या धर्म आधारित नहीं होता; कई सामाजिक प्रेम संबंध आपसी समझ और साझा मूल्यों पर टिके होते हैं। हालाँकि, दहेज जैसी कुरीतियाँ सामाजिक प्रेम को बोझिल बना सकती हैं। 


प्राकृतिक प्रेम 'वसुधैव कुटुंबकम' का साकार रूप है, जो स्वतंत्रता और भावनात्मक मेल से पनपता है। यह बीज तब विशाल वृक्ष बनता है, जब सामाजिक जिम्मेदारियों से संतुलित हो। जैसे, मीराबाई का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम स्वच्छंद था, पर उन्होंने सामाजिक मर्यादाओं का भी खयाल रखा। आज के युग में, अंतरजातीय प्रेम विवाह प्राकृतिक प्रेम का प्रतीक हैं।


प्राकृतिक प्रेम किसी धर्म या जाति का नहीं होता। प्राकृतिक प्रेम वासना को स्वाभाविक मानता है, उसका सम्मान करता है, पर सामाजिक प्रेम में वासना को अक्सर दबाया या निंदित किया जाता है। फ्रायड वासना को मानव स्वभाव का हिस्सा बताते हैं। कामसूत्र वासना को जीवन का अभिन्न अंग मानता है, पर इसे प्रेम और नैतिकता के साथ संतुलित करने की सलाह देता है। प्रेम मन का राग है, वासना शरीर का; दोनों का मेल ही सच्चा प्रेम बनाता है। हालाँकि, वासना का असंतुलन, जैसे यौन शोषण, सामाजिक असमानताओं और नैतिक विचलन से उपजता है।


वासना का सम्बन्ध शरीर से है, जबकि प्रेम का सम्बन्ध शरीर से ज्यादा मन से है। भावपूर्ण प्रेम उम्र को पार कर जाता है, एक-दूसरे की जाति या धर्म को बीच में रोड़ा नहीं बनने देता। सामाजिक प्रेम कभी-कभी पारंपरिक संरचनाओं को बनाए रखने की चिंता करता है, जबकि प्राकृतिक प्रेम इन बंधनों को चुनौती देता है, इसलिए प्राकृतिक प्रेम का पारंपरिक संरचनाएँ विरोध करता है। 


प्रेम मानव स्वभाव का सहज और बहुआयामी पहलू है। यह विभिन्न रूपों में—सामाजिक, प्राकृतिक, आध्यात्मिक—प्रकट होता है और व्यक्तिगत अनुभवों व परिस्थितियों के आधार पर विकसित होता है। प्रेम माता-पिता और बच्चों के बीच सामाजिक बंधन के रूप में, दो व्यक्तियों के बीच प्राकृतिक आकर्षण के रूप में, या भक्ति के रूप में ईश्वर के प्रति समर्पण के रूप में प्रकट हो सकता है।


कई लोग सामाजिक प्रेम के इस बंधन को पारिवारिक स्थिरता और जिम्मेदारियों के लिए स्वीकार करते हैं। आज का युग प्रेम को नए रंग दे रहा है—लिव-इन रिलेशनशिप, समलैंगिक प्रेम, और ऑनलाइन डेटिंग स्वतंत्रता की राह दिखाते हैं, पर सामाजिक स्वीकार्यता की चुनौती बनी हुई है। सामाजिक प्रेम स्थिरता देता है, प्राकृतिक प्रेम स्वतंत्रता, और आध्यात्मिक प्रेम मुक्ति। प्रेम बंधन नहीं, बल्कि दिलों का सेतु है, जो समाज, आत्मा, और ईश्वर को एक सूत्र में बाँधता है। सामाजिक प्रेम हमें स्थिरता और जिम्मेदारी देता है, जबकि प्राकृतिक प्रेम हमें स्वतंत्रता और भावनात्मक गहराई। एक संतुलित जीवन में दोनों का स्थान है। आज के दौर में हम देख रहे हैं और ऐसे बहुत से उदाहरण हमारे सामने हैं, आज का युवा परम्परागत सामाजिक बंधनों को तोड़कर अंतरजातीय प्रेम विवाह कर रहा है, लेकिन अपने परिवारों को जोड़ने के लिए सामाजिक प्रेम की जिम्मेदारियों को भी अपना रहा है। यह प्राकृतिक प्रेम का सामाजिक प्रेम के साथ सुन्दर संयोजन लगता है। क्यों न प्रेम को हम हर रूप में स्वीकार करें?


सादर,

केशव राम सिंघल 

#प्रेम, #सामाजिकप्रेम, #प्राकृतिकप्रेम #आध्यात्मिकप्रेम 



सोमवार, 14 अप्रैल 2025

आईये हिंदी गजल सीखें

आईये हिंदी गजल सीखें 

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"ग़ज़ल का ज्ञान केवल पढ़ा नहीं, महसूस किया जाता है — जैसे गुरु अपने अनुभव से शिष्यों को रस में डुबो देता है।" प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 


ग़ज़ल उर्दू साहित्य की महत्वपूर्ण काव्य विधा है। ग़ज़ल एक विशेष शैली की कविता कही जा सकती है जिसमें कई शेर (दो पंक्तियों के पद्य) होते हैं, और हर शेर अपने आप में पूर्ण होता है। ग़ज़ल के हर शेर का अर्थ स्वतंत्र हो सकता है, परंतु सभी शेर एक ही बहर (छंद) और क़ाफ़िया-रदीफ़ के अनुशासन में होते हैं।


गजल के मुख्य लक्षण निम्न होते हैं -


(1) हर शेर स्वतंत्र होता है।

(2) मतला (प्रथम शेर) और मक़ता (अंतिम शेर) होते हैं।

(3) क़ाफ़िया और रदीफ़ का प्रयोग होता है। 


ग़ज़ल की रचना में क़ाफ़िया, रदीफ़, और बहर महत्वपूर्ण तीन तकनीकी तत्व होते हैं। चलिए एक-एक करके तीनों को समझते हैं। 


(1) काफिया = तुक 

काफिया रदीफ़ के पहले आती है। इसे तुकांत शब्द भी कह सकते हैं। क़ाफ़िया वो तुक होती है, जो हर शेर की पहली पंक्ति (मतला) के बाद और फिर दूसरे मिसरे में दोहराई जाती है — और ये रदीफ़ से ठीक पहले आता है।


(2) रदीफ़ = शब्द या पद, जो हर पंक्ति के अंत में एक जैसा दोहराया जाए। 

रदीफ़ काफिया के बाद में आता है। रदीफ़ वह शब्द या शब्द समूह (पद) होता है, जो हर शेर के अंत में एक जैसा दोहराया जाता है, और क़ाफ़िया के बाद आता है।


(3) बहर = लय या छंद 

बहर का अर्थ होता है कविता की लय या छंद — यानी हर शेर में अक्षरों की गणना या माप एक जैसी होनी चाहिए। ग़ज़ल की हर पंक्ति एक ही बहर में होती है। ग़ज़ल की हर पंक्ति एक ही बहर (लय या छंद) में होनी चाहिए। उदाहरण - अगर एक पंक्ति में 10 मात्राएँ हैं, तो दूसरी पंक्ति में भी उतनी ही होनी चाहिए।यह गणित की तरह होता है — इसे ग़ज़ल का पैमाना या मापक कह सकते हैं। ऐसा अंग्रेजी कविता में भी होता है।


ग़ज़ल मूलतः फ़ारसी और अरबी साहित्य से होते हुए उर्दू में विकसित हुई, जहाँ इस विधा ने अपनी पराकाष्ठा को छुआ। लेकिन समय के साथ-साथ यह काव्य विधा हिंदी में भी पूरी गरिमा और लोकप्रियता के साथ स्थान बना चुकी है। आजकल हिंदी में भी ग़ज़ल लिखी जा रही है। हिंदी ग़ज़ल के लिए दुष्यंत कुमार का योगदान सराहनीय है। दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को जनभावनाओं से जोड़कर एक नया आयाम दिया। उन्होंने ग़ज़ल को महज़ प्रेम और सौंदर्य की दुनिया से बाहर निकालकर सामाजिक, राजनैतिक और आम जनमानस की आवाज़ बना दिया। हिंदी ग़ज़ल को लोकप्रिय और जनजीवन से जोड़ने में दुष्यंत कुमार का योगदान अविस्मरणीय है। उन्होंने ग़ज़ल को साहित्यिक मंचों से निकालकर आम आदमी के दिल तक पहुँचा दिया। राहत इंदौरी, विनोद कुमार शुक्ल, अनवर जलालपुरी, बशीर बद्र आदि ऐसे अन्य गजलकार हैं, जो हिंदी पाठकों के बीच भी काफी लोकप्रिय हुए। 

 

यहाँ नीचे मैं गजल के कुछ उदाहरण देता हूँ  -


हमने तुम्हें याद किया,

तुमने हमें याद किया, 

यह बात दिलों की है, 

आपस में याद किया। 


यहाँ -

काफिया - तुम्हें, हमें, में 

रदीफ़ - याद किया 

बहर - हर पंक्ति लगभग समान लय में लगती है, एक ही बहर का पालन हुआ है। 


हमने उन्हें याद किया,  

ग़म से दिल को आबाद किया।  

रात के सन्नाटे में,  

हर आह में फ़रियाद किया।


यहाँ - 

काफ़िया - आबाद, फ़रियाद

रदीफ़ - किया

बहर - समान लय बरकरार है। 


मैं दुष्यंत कुमार की एक गजल का छंद प्रस्तुत करता हूँ - 


कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए,

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,

चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।


यहाँ - 

काफिया - कहाँ, यहाँ 

रदीफ़ - के लिए 

बहर - हर पंक्ति लगभग समान लय में लगती है, एक ही बहर का पालन हुआ है। 


उदाहरण के लिए ग़ालिब की एक गजल प्रस्तुत करता हूँ - 


दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है, 

आख़िर इस दर्द की दवा क्या है। 

हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार, 

या इलाही ये माजरा क्या है। 


यहाँ - 

काफिया - हुआ, दवा, माजरा 

रदीफ़ - क्या है  

बहर - हर पंक्ति लगभग समान लय में लगती है, एक ही बहर का पालन हुआ है।


आशा करता हूँ कि आप गजल के बारे में प्रारंभिक ज्ञान सीख गए होंगे। आईये, एक  हिंदी गजल की रचना कर हमारे साथ साझा करें। 


शुभकामनाएँ,

केशव राम सिंघल 




रविवार, 6 अप्रैल 2025

अपनी बात — अधूरा ज्ञान घातक होता है?

 अपनी बात — 

अधूरा ज्ञान घातक होता है?

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यह हम अक्सर सुनते हैं - अधूरा ज्ञान घातक होता है। यह कथन हमें सचेत करता है कि किसी विषय पर अपूर्ण जानकारी के आधार पर निर्णय लेना खतरनाक हो सकता है। यह सुझाव देता है कि हमें पूरे ज्ञान को प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए। पूरा ज्ञान पाना न केवल कठिन, बल्कि लगभग असंभव है। ज्ञान का संसार असीम है और हमारी मानवीय क्षमता सीमित। हर क्षेत्र में निरंतर नए शोध और खोजें होती रहती हैं, इसलिए किसी भी विषय पर पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है। 


यह कथन — "अधूरा ज्ञान घातक होता है" — तब सही प्रतीत होता है जब कोई व्यक्ति अपने अधूरे ज्ञान को ही पूर्ण सत्य मानकर, उस पर अंध-विश्वास करता है और उस पर आधारित निर्णय लेता है। ऐसे निर्णय प्रायः गलत साबित हो सकते हैं और हानि का कारण बन सकते हैं।


अधूरा ज्ञान होना स्वाभाविक है — हर व्यक्ति की क्षमता सीमित होती है और ज्ञान असीम होता है, इसलिए हर व्यक्ति का ज्ञान अधूरा ही होता है। वास्तव में, अधूरा ज्ञान होना स्वाभाविक है।


महत्वपूर्ण यह है - 


🔹 हम यह स्वीकार करें कि हमारा ज्ञान सीमित है।  

🔹 जिज्ञासु बने रहें और सीखने की निरंतर कोशिश करें।  

🔹 जहाँ आवश्यक हो, वहाँ विशेषज्ञों से मार्गदर्शन लें।  

🔹 सबसे अहम – अपने अधूरे ज्ञान पर अंध-विश्वास न करें।


मुख्य निष्कर्ष - अधूरा ज्ञान घातक नहीं, अधूरे ज्ञान पर अंध-विश्वास घातक हो सकता है। इसलिए ज्ञान बढ़ाओ और जिज्ञासु बनो। 


सादर,

केशव राम सिंघल ✍️

शनिवार, 5 अप्रैल 2025

दास्ताँ – 5 – गांधारी का प्रण

दास्ताँ – 5 – गांधारी का प्रण

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गांधार नरेश सुबल थे अति ज्ञानी,

राज्य समृद्ध और राजा था दानी। 

पुत्री एक जिसका रूप अनोखा, 

गांधारी नाम, सुशील, सलोना।


भविष्यवक्ता गणुधर ने जन्मपत्री खोली, 

भविष्य की गणनाएँ उसने यूँ बोलीं—

राजकुमारी का होगा उच्च विवाह, 

तप की होगी उसमें असीम चाह।


सौभाग्य और समर्पण भरपूर होगा, 

नेत्रों में ज्योति, पर तिमिर बसेगा। 

महलों में रह वह साधना करेगी, 

त्याग की मूर्ति वह हरदम रहेगी।


दीर्घायु होगी, समर्पण होगा अनूठा,

सम्पन्नता संग होगी त्याग की रूपा। 


यह सुन राजा सुबल कुछ घबराए, 

कुछ पल ठहरे, फिर हौले मुस्काए, 

भगवान की लीला भला कौन जाने,

मन समझाया, शुभ होगा यही माने। 


राजमहल में रहकर शिक्षा पाई, 

धर्म की गूढ़ता गांधारी में समाई।

सखियों संग राजकुमारी सैर को जाती, 

मंदिर में आराधना कर शीश नवाती। 


उसे लगती थी आराधना प्यारी, 

तपस्विनी सा रूप वह थी गुणकारी। 

सौंदर्य अद्वितीय, निर्मल और दिव्य,

धर्मनिष्ठा संग स्वभाव रूप भी शुभ्र।


हस्तिनापुर में,

भीष्म और विदुर विचार में डूबे, 

धृतराष्ट्र विवाह हेतु चिंतनशील हुए।

माँ अंबिका चिंता में घुली जातीं, 

वंश वृद्धि की आशा लगातीं।


धृतराष्ट्र बोले, "मैं हूँ नेत्रहीन, 

कैसे करूँ किसी का जीवन संगीन? 

न बंधन चाहूँ, न संग किसी का, 

किसे दूँ सहारा, कौन बने दिशा?"


पर अंबिका ने ठाना संकल्प, 

राजवंश का यही एक विकल्प। 

"राजा का विवाह अनिवार्य रहेगा, 

वंशज के बिना राजकुल अधूरा रहेगा।"


उधर गांधारी ने शिव चरणों में शीश नवाया, 

उसके मन में यह अद्भुत वरदान समाया  - 

"हे महादेव! कृपा बरसाओ, 

सौ पुत्रों का सुख दिखलाओ।"


तभी सखी दौड़ी आई, ख़ुशियाँ संग लाई,

"राजकुमारी, आओ, चलो, बुलावा आया। 

आया है अभी हस्तिनापुर दूत का प्रस्ताव,

कुरु राजवंश से जुड़ने का मिला है दाँव।"


राजकुमारी सकुचाई,मौन मुस्काई,

ह्रदय में उठी भावों की अंगड़ाई। 


गांधार नरेश ने किया आर्यावर्त दूत का सत्कार,

भीष्म ने सराहा गांधारी का रूप और संस्कार। 


गांधारी ने चाही प्रियतम की एक झलक, 

उसके मन में थी यही एक मात्र ललक। 

पर सुना, धृतराष्ट्र यहाँ नहीं आए, 

यह सुन कहीं सपने बिखर न जाएँ।


एक ओर गांधार, छोटा सा राज्य, 

दूजा समृद्ध आर्यवर्त का साम्राज्य। 

खुशी खुशी सुबल ने किया प्रस्ताव स्वीकार, 

धृतराष्ट्र संग गांधारी का भावी जीवन संसार।


गांधारी की मौन उदासी देख, 

प्रिय दासी आई बहुत समीप,

"अब तुम्हारा सपना साकार हुआ,

हस्तिनापुर की तुम शान बनीं।" 


गांधारी के मन में उठे घने सवाल, 

धृतराष्ट्र का स्वभाव रूप कैसा होगा? 

पर करुवंश के राजा अविवाहित रहे, 

तो वंशज बिना राज्य कैसे चलेगा?


उधर भीष्म भी सोच में पड़े थे, 

क्या सत्य छिपाना उचित है? 

गांधारी को क्या पूरा सच बतलाऊँ? 

या कुरुवंश की नाव सुरक्षित बचाऊँ?


सत्य आज नहीं तो कल खुलेगा, 

भविष्य सब कुछ सह लेगा। 

हस्तिनापुर को उत्तराधिकारी चाहिए, 

राजधर्म में मौन ही श्रेयस्कर रहेगा।


गांधारी हस्तिनापुर आ पहुँची है, 

विवाह भी संपन्न हो चुका है। 

असत्य से पर्दा उठ चुका है, 

गांधारी सत्य जान चुकी है।


विवाह में जयकार, मंत्र स्वरों की गूंज,

चारों ओर हर्ष, सुगन्धित फूलों की धूम। 

गांधारी मन ही मन व्यथित रही,

पति संग सहानुभूति में निमग्न रही।


लिया प्रण पति संग निभाने का, 

जीवन भर आंखों पर पट्टी बाँधने का। 

अब वह भी देखेगी नहीं यह संसार, 

पति संग निभाएगी हर संस्कार।


प्रजा ने सुना तो दर्शन को हुई आतुर, 

ऐसी पतिव्रता अद्भुत, अद्वितीय। 

समर्पण की पराकाष्ठा, नारी की सूरत, 

गांधारी का जीवन बना त्याग की मूरत।


प्रसंगवश  

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गांधारी धार्मिक और कर्तव्यनिष्ठ थीं। उन्होंने अपने पुत्रों से अत्यधिक प्रेम किया, किंतु दुर्योधन के प्रति उनके मोह ने उन्हें कई बार धर्मसंकट में डाल दिया। महाभारत युद्ध के बाद उन्होंने धृतराष्ट्र के साथ वन में अध्यात्म और साधना का जीवन व्यतीत किया। श्रीकृष्ण को उन्होंने अपने पुत्रों की मृत्यु के लिए उत्तरदायी माना और उनके प्रति क्रोध भी प्रकट किया। किंतु गांधारी का सबसे महान त्याग का प्रण उनकी आँखों की पट्टी थी, जिसे उन्होंने जीवनभर निभाया। 


सादर,

केशव राम सिंघल 

प्रतीकात्मक चित्र गांधार महल - साभार NightCafe 


शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

दास्ताँ - 4 - प्राचीन भारत

दास्ताँ - 4 - प्राचीन भारत 

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भारत महान देश 

विशाल और समृद्ध इतिहास 

प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और परम्पराएँ 

हड़प्पा सभ्यता से शुरू होकर 

वैदिक काल, बौद्ध और जैन प्रभाव 

और फिर मौर्य साम्राज्य के महत्वपूर्ण दौर से गुज़री। 


भारत का अतीत 

विविधता और निरंतरता का अनूठा मिश्रण 

जहाँ विभिन्न धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों ने 

सह-अस्तित्व में रहकर 

एक समृद्ध ताने-बाने को जन्म दिया।


उत्तर-पश्चिम की तरफ सिंधु घाटी में मोहनजोदड़ो - 

इस प्राचीन शहर में घर और गलियाँ  

पाँच हज़ार साल से भी ज़्यादा समय से अस्तित्व में रहे 

मोहनजोदड़ो - एक प्राचीन और सुविकसित सिंधु सभ्यता थी  

सिंधु सभ्यता  तत्कालीन मानव जीवन के रहन-सहन का प्रतिनिधित्व करती है। 


भारत की प्राचीन सभ्यता 

केवल सिंधु घाटी और वैदिक काल तक 

सीमित नहीं रही, 

बल्कि आगे बढ़ते हुए कई महान राजवंशों ने इसे समृद्ध किया।  


चंद्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में 

भारत का पहला विशाल 

मौर्य साम्राज्य (321-185 ईसा पूर्व) स्थापित हुआ।  


चाणक्य ने 

राजनीति और अर्थव्यवस्था पर

'अर्थशास्त्र' की रचना की। 


अशोक महान ने 

कलिंग युद्ध के बाद 

अहिंसा और बौद्ध धर्म को अपनाकर 

शांति और धर्म का संदेश दिया।


गुप्त साम्राज्य (319-550 ईस्वी) 

भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग 

चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के नेतृत्व में 

कला, साहित्य, विज्ञान और गणित में अद्भुत प्रगति हुई 

इसी काल में आर्यभट्ट ने 'शून्य' की अवधारणा दी 

और 

कालिदास जैसे महान साहित्यकारों ने संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया।  


दक्षिण भारत में चोल साम्राज्य (9वीं-13वीं शताब्दी) ने

मजबूत नौसैनिक शक्ति विकसित की 

और 

दक्षिण पूर्व एशिया तक 

भारतीय संस्कृति का विस्तार किया। 


चोल साम्राज्य के शासनकाल में भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ -

बृहदेश्वर मंदिर 

स्थापत्य कला का एक अनुपम उदाहरण है।  


विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ईस्वी) काल में 

दक्षिण भारत में 

कला, संगीत, मंदिर निर्माण और व्यापार 

खूब फला-फूला। 


मुगल साम्राज्य (1526-1857 ईस्वी) काल में 

बाबर से लेकर औरंगजेब तक 

मुगलों ने भारत में 

एक समृद्ध सांस्कृतिक और प्रशासनिक प्रणाली विकसित की - 

अकबर की धार्मिक सहिष्णुता, 

शाहजहाँ की स्थापत्य कला (ताजमहल) 

और 

मुगलों का विस्तारित साम्राज्य इस काल की विशेषताएँ थीं।  

 

भारत हर समय बदल रहा था 

और 

प्रगति कर रहा था। 


भारत के लोग  

फारसियों, मिस्रियों, यूनानियों, चीनी, अरबों, मध्य एशियाई और भूमध्य सागर के 

लोगों के साथ घनिष्ठ संपर्क में आए।   


भारत के लोगों ने उन्हें प्रभावित किया 

और 

भारत उनसे प्रभावित हुआ 

भारत के लोगों का  सांस्कृतिक आधार इतना मजबूत था 

कि वह लोगों को प्रभावित कर सके। 


भारत ने 

बाहरी प्रभावों को आत्मसात किया

फिर भी अपनी मूल पहचान को बनाए रखा।


हिमालय - पुराने मिथक और किंवदंतियों से बहुत निकट से जुड़ा हुआ है

हिमालय -  जिसने हमारे विचारों और साहित्य को बहुत प्रभावित किया 

पहाड़ों के प्रति हमारा प्रेम 

जीवन, शक्ति और सौंदर्य से भरपूर। 


सिंधु जिससे हमारे देश को भारत और हिंदुस्तान कहा जाता था 

और 

अब इसे इंडिया और भारत के नाम से जाना जाता है। 


बहुत सारी नदियाँ - 

गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, कावेरी, नर्मदा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा, महानदी आदि। 


भारत की सभ्यता और संस्कृति 

उत्थान और पतन 

महान और गौरवशाली इतिहास 

मनुष्यों के साहसिक कार्यों से भरपूर 

मन की खोज 

जीवन की समृद्धि और पूर्णता 

विकास और क्षय के उतार-चढ़ाव 

जीवन और मृत्यु के उतार-चढ़ाव  

प्राचीन मूर्तिकला भित्तिचित्र - 

अजंता, एलोरा, एलिफेंटा गुफाएँ 

विभिन्न स्थानों पर  सुंदर इमारतें  

जहाँ हर पत्थर 

भारत के अतीत की कहानी कहता है। 


भारत की यात्रा कभी रुकी नहीं, 

यह निरंतर प्रवाहमान रही। 


प्रत्येक सभ्यता

प्रत्येक साम्राज्य

प्रत्येक कालखंड ने 

भारत की विरासत को और अधिक समृद्ध बनाया।  


आज भी भारत 

अपने प्राचीन ज्ञान, 

सांस्कृतिक विविधता 

और 

आधुनिक प्रगति के संगम से 

आगे बढ़ रहा है। 


विज्ञान, कला, संगीत, आध्यात्मिकता, और दर्शन के क्षेत्र में 

भारत की खोज जारी है।  


संस्कृति की यह धारा 

कभी रुकी नहीं

कभी थमी नहीं

हर युग में बहती रही 

संजोती रही 

गढ़ती रही।  


सादर,

केशव राम सिंघल 


प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 


दास्ताँ - 3 - मिर्जा ग़ालिब

दास्ताँ - 3 - मिर्जा ग़ालिब

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विश्व-साहित्य में उर्दू की सबसे बुलंद आवाज़ के तौर पर

पहचाने जाने वाले

और

सबसे अधिक सुने-सुनाए जाने वाले महान शायर के तौर पर

मिर्जा ग़ालिब का नाम सबसे ऊपर आता है।

पूरा नाम - मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान

उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के एक महान शायर

इन्होने फ़ारसी कविता के प्रवाह को

हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाया।


वे उर्दू और फ़ारसी के महान शायर थे

लेकिन उनकी उर्दू शायरी को अधिक प्रसिद्धि मिली।

उनकी अधिकांश ग़ज़लें उर्दू में थीं

जबकि गद्य, जैसे 'दस्तंबू', उन्होंने फ़ारसी में लिखा।


मुग़ल काल के आख़िरी शासक

बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि

मिर्जा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर, 1797 को आगरा, उत्तर प्रदेश में

और मृत्यु 15 फ़रवरी, 1869 को दिल्ली में।


हालाँकि मिर्जा गालिब ने

सीधे तौर पर स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में नहीं लिखा

पर 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान

दिल्ली में हुई तबाही और लोगों की पीड़ा का ज़िक्र

'दस्तंबू' नाम की किताब में अपनी रचनाओं में किया

जो उन्होए फारसी में लिखी।


ग़ालिब सहिष्णुता के सिद्धांत के प्रबल समर्थक थे।


ग़ालिब आर्थिक कठिनाइयों से हमेशा जूझते रहे

विद्रोह के कारण ग़ालिब की आय के स्रोत

ब्रिटिश सरकार से मिलने वाली पेंशन

और

बहादुरशाह से मिलने वाला वजीफा

बंद हो गए थे

जिससे उन्हें आर्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ा

उनकी पूरी ज़िंदगी तंगी में गुज़री, और वे हमेशा कर्ज़ में रहे।


ग़ालिब ने फारसी भाषा में लिखी 'दस्तंबू' में लिखा -

1857 की त्रासदियों ने उन्हें और उनके शहर (दिल्ली) को असाध्य घाव दिए

उन्होंने विद्रोह का वर्णन करने के लिए

कुछ सबसे कठोर शब्दों का इस्तेमाल किया


'दस्तंबू' में ग़ालिब ने विद्रोह की विभीषिका

और

समाज की स्थिति का वर्णन किया

लेकिन पूरी तरह ब्रिटिश दृष्टिकोण के साथ

ग़ालिब सीधे तौर पर स्वतंत्रता संग्राम के पक्षधर नहीं थे

बल्कि 1857 के विद्रोह को एक त्रासदी के रूप में देखते थे

उन्होंने सामाजिक स्थिति का वर्णन किया

लेकिन राजनीतिक रूप से निष्क्रिय रहे।


ग़ालिब तटस्थ थे और उनका दृष्टिकोण ब्रिटिश सरकार के पक्ष में झुका हुआ था।


'उर्दू-ए-मुअल्ला' मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा लिखे गए खतों का संकलन है

ग़ालिब के ये पत्र उर्दू गद्य के विकास में मील का पत्थर माने जाते है

उर्दू गद्य का सहज रूप इन खतों में झलकता है

जिसमें पारंपरिक औपचारिक भाषा को छोड़कर

बोलचाल की भाषा में पत्र लिखे गए

जिससे उर्दू गद्य सरल और स्वाभाविक हो गया।


ग़ालिब के पत्रों में ग़ालिब का हास्य, व्यंग्य, दर्द, दर्शन, और उनकी संवेदनशीलता झलकती है।

वे न केवल व्यक्तिगत भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं, बल्कि समाज और राजनीति पर भी अपनी राय देते हैं।


ग़ालिब के पत्रों में साहित्यिक विचार, जीवन-दर्शन और आत्मनिरीक्षण देखने को मिलता है।

ग़ालिब के पत्रों को पढ़कर उनके विचारों की गहराई और उनके व्यक्तित्व की अनूठी झलक मिलती है।

ग़ालिब अपने पत्रों के बारे में कहते हैं -

"मैंने अपने पत्रों को बातचीत बना दिया है…

दोस्ती और आत्मीयता का एक जरिया

जो इन्हें पढ़ेगा

समझेगा कि मुझसे बातें कर रहा है।"


ग़ालिब के ख़त

न केवल उनके युग के दस्तावेज़ हैं

बल्कि उर्दू साहित्य का एक बहुमूल्य ख़ज़ाना भी हैं

इन्हें पढ़कर हमें उनके समय की परिस्थितियों

और

उनके व्यक्तित्व को समझने का अवसर मिलता है।


उनके लिखे पत्रों में उनका दुःख और निराशा झलकती है।


मिर्ज़ा ग़ालिब की चुनी हुईं रचनाएँ -


(1) ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता, अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि हमारी क़िस्मत में यह नहीं लिखा था कि हमें अपने प्रिय का सानिध्य (मिलन) मिले। अगर हम और जीते रहते, तो बस यही इंतज़ार करते रहते। इस रचना में ग़ालिब ने प्रेम, विछोह और नियति की मजबूरी को व्यक्त किया है।


(2) दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यों, रोएंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि दिल कोई पत्थर (संग) और ईंट (ख़िश्त) तो नहीं है, जो दर्द महसूस न करे। जब भावनाएँ उमड़ती हैं, तो आँसू आना स्वाभाविक है। इस रचना में मानवीय संवेदनाओं की कोमलता को दर्शाया गया है।


(3) हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि इंसान की इच्छाएँ अनंत होती हैं। एक इच्छा पूरी होती नहीं कि दूसरी जन्म ले लेती है। यह रचना जीवन की असंतुष्टि और अपूर्णता को दर्शाती है।


(4) बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि यह दुनिया बच्चों के खेलने का मैदान (बाज़ीचा) है। यहाँ हर दिन कुछ नया तमाशा होता रहता है, मानो यह सब एक खेल हो। ग़ालिब यहाँ जीवन की नश्वरता और उसकी असारता को प्रकट करते हैं।


(5) न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता, डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि जब कुछ नहीं था, तब भी ईश्वर था। यदि कुछ भी नहीं होता, तब भी ईश्वर की सत्ता बनी रहती। लेकिन जैसे ही अस्तित्व आया, समस्याएँ भी आईं। ग़ालिब की यह रचना दार्शनिक विचारों को प्रकट करती है।


ग़ालिब की शायरी का आज भी भारतीय साहित्य और सिनेमा में व्यापक प्रभाव है। उनके कई शेर फिल्मों और ग़ज़लों में इस्तेमाल किए जाते हैं, जिससे उनकी लोकप्रियता आज भी बनी हुई है।


सादर,

केशव राम सिंघल

साभार गूगल - मिर्ज़ा ग़ालिब छायाचित्र 

मंगलवार, 25 मार्च 2025

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति  

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लगभग 13.8 अरब साल पहले 

एक अत्यंत गर्म और सघन बिंदु में 

समय, स्थान, और पदार्थ सब एक साथ संकुचित थे

एक विशाल विस्फोट हुआ 

और 

फिर ब्रह्माण्ड तेजी से फैलने लगा और ठंडा होने लगा। 


इसी विस्फोट के बाद -

समय और स्थान   का जन्म  हुआ,

कुछ ही पलों में प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन जैसे मूल कण बने

और 

वह बिंदु विस्फोट के साथ फैलने लगा। 


वह अत्यंत गर्म और सघन बिंदु ऐसा था 

जिस पर सामान्य भौतिक नियम 

(जैसे समय, स्थान, और गुरुत्वाकर्षण के नियम) 

लागू नहीं होते थे। 


लगभग 380,000 साल बाद 

जब ब्रह्माण्ड पर्याप्त ठंडा हुआ 

तो मूल कणों ने मिलकर हाइड्रोजन और हीलियम जैसे हल्के तत्व बनाए।


फिर अगले लाखों-करोड़ों सालों में 

गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से 

गैस के बादल सघन हुए 

जिससे तारे और आकाशगंगाएँ बनीं। 


विस्फोट वह "शून्य क्षण" था 

जिससे समय और स्थान का जन्म हुआ।


विस्फोट से पहले क्या था 

यह अभी भी अनसुलझा है। 


विस्फोट से पहले की स्थिति को कभी समझा जा सकेगा, 

या यह हमेशा एक दार्शनिक प्रश्न बना रहेगा?


सादर,

केशव राम सिंघल 

प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 


शनिवार, 22 मार्च 2025

सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर की अंतरिक्ष यात्रा – जीवन की अनमोल सीख

सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर की अंतरिक्ष यात्रा – जीवन की अनमोल सीख 

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नौ महीने अंतरिक्ष की अनंत गहराइयों में बिताकर सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर धरती पर लौटे—एक ऐसी यात्रा जो हमें साहस और संभावनाओं की सीख देती है। आइए, जाने कि वे सीख क्या हो सकती हैं।
1. धैर्य, दृढ़ता और अनुशासन – मुश्किलों में संयम और डर से आगे बढ़ने की सीख – अंतरिक्ष में नौ महीने बिताना धैर्य, दृढ़ता और अनुशासन की कठिन परीक्षा है। अंतरिक्ष जैसी चुनौतीपूर्ण और अनिश्चित परिस्थितियों में इतना लंबा समय बिताना आसान नहीं है। यह हमें सिखाता है कि बड़े लक्ष्यों के लिए संयम और निरंतरता जरूरी है।
2. साहस और अनुकूलन क्षमता – अप्रत्याशित परिस्थितियों में ढलने की कला – जिस प्रकार अंतरिक्ष यात्रियों सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर ने अपने आपको अलग-अलग और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में खुद को ढाला, उससे हमें सीख मिलती है कि कठिनाइयों से घबराने के बजाय उनके अनुरूप खुद को ढालना चाहिए। अंतरिक्ष स्टेशन में तकनीकी खराबी या शून्य गुरुत्व जैसी स्थितियों में ढलना उनके साहस को दर्शाता है।
3. टीम वर्क और तैयारी का महत्व – सहयोग और योजना से बड़ी सफलता – किसी भी कार्य की सफलता टीम वर्क और उसकी तैयारी पर निर्भर करती है। जब सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर अंतरिक्ष में थे, तब नासा की टीम निरंतर संपर्क में रही और उनकी सुरक्षा व मिशन की सफलता सुनिश्चित की। यह दिखाता है कि टीम वर्क और सही तैयारी किसी भी चुनौती को पार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जिस प्रकार अंतरिक्ष मिशन में हर कदम पर वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और अंतरिक्ष यात्रियों का सहयोग और समन्वय होता है। एक आम इंसान के लिए यह सीख है कि लक्ष्य हासिल करने के लिए दूसरों के साथ मिलकर काम करना और पहले से तैयारी करना कितना अहम है। जीवन में भी, चाहे वह परिवार हो, कार्यस्थल हो या समाज, टीम वर्क और सहयोग से ही बड़ी उपलब्धियाँ संभव हैं।
4. विज्ञान और नवाचार का सम्मान – तकनीक की शक्ति को अपनाएँ – अंतरिक्ष यात्रियों सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर की यह अंतरिक्ष यात्रा हमें वैज्ञानिक प्रगति की शक्ति का एहसास कराती हैं। इस यात्रा ने यह भी सिद्ध किया कि विज्ञान और नवाचार की मदद से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है। यह यात्रा हमें वैज्ञानिक प्रगति की शक्ति दिखाती है—चाहे वह अंतरिक्ष स्टेशन पर पौधे उगाना हो या नई तकनीकों का परीक्षण। इस यात्रा ने यह भी सिद्ध किया कि विज्ञान और नवाचार की मदद से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है। हमें भी जीवन में नई सोच, नवाचार और तकनीकी ज्ञान को अपनाना चाहिए।
5. पर्यावरण और पृथ्वी के प्रति जागरूकता – अपने ग्रह की कीमत समझें – अंतरिक्ष से पृथ्वी को देखने के बाद कई अंतरिक्ष यात्रियों ने हमें बताया कि हमारी पृथ्वी कितनी अनमोल और नाजुक है। यह हमें सीख देती है कि हमें अपने ग्रह की सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक होना चाहिए।
6. मानव क्षमताओं की कोई सीमा नहीं – असंभव को संभव बनाने की प्रेरणा – यह हमें अपनी सीमाओं को चुनौती देने की प्रेरणा देता है। अंतरिक्ष यात्राओं ने यह साबित किया है कि अगर इंसान ठान ले, तो वह असंभव को भी संभव कर सकता है। इससे हमें सीख मिलती है कि हमें भी अपने सपनों को साकार करने के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए।
7. डर और कमजोरियों से आगे बढे – अपने सपनों को साकार करें – अंतरिक्ष में रहना इंसान के लिए एक असाधारण चुनौती होती है, फिर भी अंतरिक्ष यात्री इसे सफलतापूर्वक कर दिखाते हैं। यह हमें सिखाता है कि हम अपने डर को पीछे छोड़कर किसी भी कठिनाई का सामना कर सकते हैं और अपने सपनों को साकार कर सकते हैं।
इस तरह, सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर की यह यात्रा केवल वैज्ञानिक उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह हमें धैर्य, साहस, सहयोग, और अपने आसपास की दुनिया के प्रति जागरूक रहने की प्रेरणा भी देती है। यह यात्रा हमें सिखाती है कि सीमाएँ सिर्फ दिमाग की बेड़ियाँ हैं—इन्हें तोड़ें, और कोई भी मंजिल हमारी पहुँच से दूर नहीं।
सादर,
केशव राम सिंघल
प्रतीकात्मक चित्र अंतरिक्ष यात्री - साभार NightCafe 



गुरुवार, 20 मार्च 2025

शिक्षण पद्धति

शिक्षण पद्धति

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हाल ही में मुझे स्वीडिश सरकार द्वारा उठाए गए एक साहसिक कदम के बारे में जानकारी मिली। उन्होंने डिजिटल कक्षाओं (digital classrooms) को समाप्त करने और पुस्तकों, पेंसिलों तथा नोटबुक के उपयोग से पारंपरिक शिक्षण विधियों (traditional learning methods) को फिर से लागू करने का निर्णय लिया है। यह निर्णय छात्रों के लिए अत्यंत लाभकारी साबित होगा, क्योंकि इससे उनकी मानव बुद्धिमत्ता (human intelligence) में वृद्धि होगी, जिससे वे समस्याओं का विश्लेषण (problem analysis) कर उचित निर्णय (decision-making) लेने की क्षमता विकसित कर सकेंगे।


स्वीडन के इस कदम ने शिक्षा जगत में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है। शोध बताते हैं कि अत्यधिक स्क्रीन समय (screen time) बच्चों की पढ़ने की समझ (reading comprehension), ध्यान अवधि (attention span) और आलोचनात्मक सोच (critical thinking) पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। भौतिक पुस्तकों और हस्तलिखित नोट्स के माध्यम से सीखने पर जोर देकर, छात्र अपने संज्ञानात्मक कौशल (cognitive skills) को सशक्त बना सकते हैं, स्मृति प्रतिधारण (memory retention) को बढ़ा सकते हैं और बेहतर समस्या-समाधान (problem-solving) क्षमताओं का विकास कर सकते हैं।


यह सच है कि प्रौद्योगिकी (technology) के अपने फायदे हैं, जैसे सूचना तक त्वरित पहुँच (quick access to information) और इंटरैक्टिव सीखने (interactive learning) की सुविधा, लेकिन डिजिटल उपकरणों (digital tools) पर अत्यधिक निर्भरता गहन सीखने (deep learning) और विश्लेषणात्मक सोच (analytical thinking) में बाधा बन सकती है। शोधों से यह भी सिद्ध हुआ है कि हाथ से लिखने (handwriting) से स्क्रीन पर टाइप करने (typing on screen) की तुलना में जानकारी को बेहतर ढंग से याद रखा जा सकता है।


स्वीडन का यह दृष्टिकोण शिक्षा में संतुलन (balance in education) बनाए रखने के महत्व को दर्शाता है—जहाँ आवश्यक हो, वहाँ डिजिटल उपकरणों का उपयोग किया जाए, लेकिन मूलभूत शिक्षण कौशल (fundamental learning skills) को नुकसान पहुँचाए बिना।


पारंपरिक शिक्षण क्यों महत्वपूर्ण है?


पारंपरिक शिक्षण पद्धतियाँ तार्किक तर्क (logical reasoning), समस्या-समाधान (problem-solving) और स्वतंत्र निर्णय-क्षमता (independent decision-making) जैसे आधारभूत कौशलों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यदि प्रारंभिक स्तर पर डिजिटल उपकरणों का अत्यधिक उपयोग किया जाए, तो यह छात्रों की बुनियादी गणना (basic calculations) करने और विश्लेषणात्मक निर्णय लेने (analytical decision-making) की क्षमता को प्रभावित कर सकता है।


संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता


शिक्षा प्रणाली में एक संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है—प्रौद्योगिकी को धीरे-धीरे पेश किया जाए, यह सुनिश्चित करते हुए कि यह सीखने के पूरक (supplement to learning) के रूप में कार्य करे, न कि आवश्यक संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) को बाधित करने के रूप में। यदि अधिक देश स्वीडन के दृष्टिकोण को अपनाते हैं, तो छात्रों की समग्र बुद्धिमत्ता (overall intelligence), समझ (comprehension) और निर्णय-क्षमता (decision-making ability) में उल्लेखनीय सुधार देखा जा सकता है।


मेरा दृढ़ विश्वास है कि माध्यमिक स्तर (secondary level) तक की स्कूली शिक्षा पारंपरिक शिक्षण पद्धति पर आधारित होनी चाहिए, जहाँ छात्र पुस्तकों, पेंसिलों और नोटबुक का उपयोग करें, न कि केवल डिजिटल स्क्रीन पर निर्भर रहें। प्रौद्योगिकी का अत्यधिक उपयोग छात्रों को डिजिटल उपकरणों पर आश्रित बना रहा है, जिससे उनकी गणना करने की क्षमता (calculation ability) कम हो रही है और उनकी विश्लेषणात्मक सोच (analytical thinking) कमजोर हो रही है। अन्य देशों को भी इस दिशा में स्वीडन के दृष्टिकोण को अपनाने पर विचार करना चाहिए।


भारत में शिक्षण पद्धति की स्थिति


भारत में स्कूली शिक्षा की शिक्षण पद्धति काफी हद तक पारंपरिक है, हालांकि यह क्षेत्र, स्कूल के प्रकार (सरकारी, निजी, या अंतरराष्ट्रीय), और शहरी-ग्रामीण अंतर के आधार पर भिन्न होती है। पारंपरिक शिक्षण पद्धति से तात्पर्य आमतौर पर शिक्षक-केंद्रित दृष्टिकोण से है, जिसमें याद करने (rote learning), परीक्षा-उन्मुख शिक्षा (exam-oriented education), और पाठ्यपुस्तक-आधारित ज्ञान (textbook-based knowledge) पर जोर दिया जाता है। भारत में अधिकांश सरकारी और कई निजी स्कूलों में शिक्षण का तरीका अभी भी पारंपरिक है। इसमें ब्लैकबोर्ड-चॉक (blackboard-chalk) का उपयोग, एकतरफा व्याख्यान (lecture-based teaching), और छात्रों से अपेक्षा की जाती है कि वे पाठ को याद करें और परीक्षा में उस पर आधारित प्रश्नों का उत्तर दें। यह ऐतिहासिक ब्रिटिश औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली (British colonial education system) के प्रभाव की वजह से है, जिसमें अनुशासन और सैद्धांतिक ज्ञान (theoretical knowledge) पर बल दिया गया, साथ ही संसाधनों की कमी और शिक्षक-छात्र अनुपात (teacher-student ratio) का ऊँचा होना भी एक कारण है।


हालांकि, पिछले कुछ दशकों में बदलाव देखने को मिले हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) ने इस दिशा में कदम उठाए हैं, जिसमें रटने (rote learning) के बजाय अवधारणा-आधारित शिक्षा (conceptual learning), कौशल-विकास (skill development), और समग्र शिक्षा (holistic education) पर ध्यान देने की बात की गई है। निजी और अंतरराष्ट्रीय स्कूलों में, खासकर शहरी क्षेत्रों में, आधुनिक शिक्षण विधियाँ जैसे प्रोजेक्ट-आधारित शिक्षा (project-based learning), डिजिटल टूल्स (digital tools) का उपयोग, और इंटरैक्टिव कक्षाएँ (interactive classrooms) अधिक प्रचलित हो रही हैं। फिर भी, ये बदलाव पूरे देश में एकसमान नहीं हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक तरीके अभी भी हावी हैं।


संक्षेप में, भारत में स्कूली शिक्षा की शिक्षण पद्धति मुख्य रूप से पारंपरिक है, लेकिन आधुनिकीकरण (modernization) की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ रहे हैं।


आपका क्या विचार है?


मैं पाठकों से आग्रह करता हूँ कि वे अपने विचार साझा करें—भारत को किस प्रकार का शैक्षिक दृष्टिकोण (educational approach) अपनाना चाहिए?


सादर,

केशव राम सिंघल


प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe


मंगलवार, 18 मार्च 2025

दास्ताँ - 2 - दिल्ली में नमक हराम की हवेली

दास्ताँ - 2 - दिल्ली में नमक हराम की हवेली

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दिल्ली की हवेलियाँ और इमारतें ऐतिहासिक गाथाएँ सुनाती हैं। दिल्ली में नमक हराम की हवेली, चाँदनी चौक के कूचा घसीराम गली में है। कहा जाता है कि यह हवेली 19वीं सदी की शुरुआत में बनी थी। 'नमक हराम की हवेली' से सम्बंधित जानकारी के बारे में ऐतिहासिक प्रमाणों की कमी है।

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19वीं सदी की शुरुआत तक भारत की अनेक रियासतें, राजा-रजवाड़े ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी स्वीकार कर चुके थे, लेकिन कुछ रियासतें उस समय भी अंग्रेजों से लड़ रही थीं। उनमें से एक थे इंदौर के नौजवान महाराजा यशवंतराव होलकर। अनेक रियासतों ने अंग्रेजों के आगे सिर झुका लिया लेकिन होलकर ने ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी स्वीकार नहीं की, बल्कि अंग्रेजों से लड़ने का फैसला किया।

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सन् 1803 में पटपड़गंज के इलाके में मराठा दौलत राव सिंधिया और अंग्रेज़ों के बीच एक बड़ी लड़ाई हुई थी। यशवंतराव होलकर इस युद्ध में शामिल नहीं थे, लेकिन उन्होंने 1804 में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया था। भवानी शंकर खत्री, इंदौर के नौजवान महाराजा यशवंतराव होलकर के वफ़ादार थे। इस लड़ाई में खत्री ने महाराजा यशवंतराव के साथ विश्वासघात कर अंग्रेज़ों का साथ दिया था और उन्होंने महाराजा होलकर और मराठा सेना की खुफिया जानकारी अंग्रेजों को दे दी थी, इसलिए अंग्रेज़ों ने खत्री की अंग्रेजो के प्रति वफ़ादारी और महाराजा होलकर से की गई गद्दारी से खुश होकर उन्हें चाँदनी चौक में एक शानदार हवेली तोहफ़े में दी थी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जब दिल्ली में विद्रोह भड़का, तब से इस हवेली का नाम 'नमक हराम की हवेली' पड़ गया। भवानी शंकर खत्री के विश्वासघात से जुड़ी जानकारी मुख्य रूप से मौखिक परंपरा में ही मिलती है।

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समय के साथ, यह हवेली मौखिक इतिहास का हिस्सा बन गई और इसके नाम के पीछे की कहानी आज भी लोगों की स्मृतियों में है। यह एक पारंपरिक मुगल और राजपूत शैली की हवेली है, जो उस समय की शाही वास्तुकला को दर्शाती थी। हवेली की प्रमुख विशेषताएँ निम्न थीं- इसके बड़े प्रवेश द्वार– लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजे, जो अब जर्जर स्थिति में हैं। खूबसूरत झरोखे – राजस्थान और मुगल वास्तुकला से प्रेरित बालकनी और झरोखे। आलीशान आँगन, जिसमें पहले बड़े उत्सव और आयोजन होते थे। संगमरमर के खंभे और मेहराब– हवेली के आंतरिक हिस्सों में सुंदर नक्काशी थी, जो अब टूट-फुट चुकी है। अब यह हवेली खंडहर में तब्दील हो चुकी है और इसकी भव्यता की केवल कल्पना ही की जा सकती है।

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कुछ स्रोतों में यह हवेली 'घसीटा हवेली' या 'गद्दारों की हवेली' के रूप में भी वर्णित है। सुना कि हवेली में कुछ लोग अवैध कब्जा कर रहते हैं और कुछ पुराने किरायेदार भी हैं। यह हवेली एक ऐतिहासिक स्थल है, जिसके संरक्षण के लिए कोई पहल होती नहीं दिखाई दी और समय के साथ यह लुप्त होने कगार पर है। अब यह हवेली इतिहास में दबी एक भूली-बिसरी निशानी बनकर रह गई है।

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सादर,

केशव राम सिंघल

(संकलित जानकारी)

आलेख में प्रयुक्त चित्र साभार: Times Now Navbharat (स्रोत लिंक) 

दास्ताँ - 1 - अमीर ख़ुसरो

दास्ताँ - 1 - अमीर ख़ुसरो

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पूरा नाम - अबुल हसन यामुनुद्दीन अमीर ख़ुसरो

जन्म - 27 दिसंबर 1253, पटियाली गाँव, एटा जिला, उत्तर प्रदेश

निधन - अक्टूबर 1325, दिल्ली।

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अमीर ख़ुसरो भारतीय साहित्य और संगीत के अद्भुत सितारे थे।

वे चौदहवीं सदी के महान शायर, गायक, और संगीतकार थे।

वे सिर्फ एक कवि ही नहीं, बल्कि सूफियाना प्रेम और भक्ति के अद्भुत रचनाकार भी थे।

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उनकी लेखनी में भारतीयता और फारसी संस्कृति का अनूठा संगम देखने को मिलता है।

उन्हें "तोता-ए-हिंद" (भारत का तोता) कहा जाता था।

वे खड़ी बोली हिंदी के जन्मदाता भी माने जाते हैं और प्रथम मुस्लिम कवि थे, जिन्होंने हिंदी, हिंदवी और फारसी में एक साथ लिखा।

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अमीर ख़ुसरो ने विभिन्न भाषाओं में कई महत्वपूर्ण रचनाएँ लिखीं, जिनमें प्रमुख हैं -

- नूह-सिपहर – इसमें भारत की महानता का वर्णन किया गया है,

- मसनवी दुवाल-रानी-खिज्र खाँ – एक प्रेमकथा पर आधारित महाकाव्य,

- ख़ालिक़-बारी – हिंदी-फारसी शब्दों का संग्रह, जो तत्कालीन शब्दावली को दर्शाता है,

- मज्मूआ-ए-ग़ज़ल – जिसमें उनकी प्रसिद्ध ग़ज़लें संग्रहीत हैं,

- इजाज़-ए-ख़ुसरोवी – यह उनके काव्य और साहित्यिक प्रतिभा का सुंदर उदाहरण है।

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अमीर ख़ुसरो को भारतीय संगीत में कई नवाचारों के लिए जाना जाता है -

- क़व्वाली गायन शैली उन्हीं की देन है, जो आज भी सूफी संगीत का अभिन्न अंग है,

- माना जाता है कि उन्होंने ही सितार वाद्य यंत्र को विकसित किया।

- एक विशेष गायन शैली तराना को उन्होंने ईजाद किया।

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अमीर ख़ुसरो ने हिंदी में कई पहेलियाँ और मुकरियाँ लिखीं,

जो आज भी प्रसिद्ध हैं।

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मुकरियाँ

अर्थात् एक तरह की पहेली,

अर्थात् अमीर ख़ुसरो द्वारा निर्मित छंद की विधा,

जिसमें चार पंक्तियाँ होती हैं।

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उदाहरण के तौर पर पहेली और कुछ मुकरियाँ -

एक थाल मोती से भरा,

सबके सिर पर औंधा धरा।

उत्तर - आसमान और तारे

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मोरे अंगना जल बरसे, मोरा जियरा तरसे।

ऐसे दौड़ दौड़ आवे, मोती के दाने खावे।

उत्तर - मोर

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काली हूँ, पर गोरी हूँ,

रहती हूँ रसोई में,

जिसके सिर पर चढ़ जाऊँ,

वही चिल्लाए रोई-रोई।

उत्तर - तवे की रोटी

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ऐ री सखी, मैंने पहनी ऐसी चीज़,

जो टूट गई तो कोई ना रोया।

उत्तर - चूड़ी

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ऐ री सखी, मैं पानी में जाऊँ,

पर भीग ना पाऊँ।

उत्तर - मछली

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अमीर ख़ुसरो अपने आध्यात्मिक गुरु हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के परम भक्त थे।

जब उनके गुरु का निधन हुआ, तो वे इतने व्यथित हुए कि उन्होंने कहा -

गोरी सोवै सेज पर,

मुख पर डारे केस,

चल ख़ुसरो घर आपने,

रैन भई चहुँ देस।

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गुरु हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के निधन के कुछ ही समय बाद,

अक्टूबर 1325 में अमीर खुसरो का भी निधन हो गया,

उनकी इच्छा के अनुसार,

उन्हें हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के समीप दफ़नाया गया।

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अमीर ख़ुसरो न केवल एक महान कवि और संगीतकार थे,

वे भारतीय संस्कृति और परंपरा के सेतु भी थे,

उनकी कृतियाँ आज भी साहित्य प्रेमियों और संगीतज्ञों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं,

वे न केवल अपने समय में लोकप्रिय रहे,

बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक अमूल्य धरोहर छोड़ गए।

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सादर,

केशव राम सिंघल

चित्र - अमीर खुसरो साभार गूगल खोज