रविवार, 6 अप्रैल 2025

अपनी बात — अधूरा ज्ञान घातक होता है?

 अपनी बात — 

अधूरा ज्ञान घातक होता है?

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यह हम अक्सर सुनते हैं - अधूरा ज्ञान घातक होता है। यह कथन हमें सचेत करता है कि किसी विषय पर अपूर्ण जानकारी के आधार पर निर्णय लेना खतरनाक हो सकता है। यह सुझाव देता है कि हमें पूरे ज्ञान को प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए। पूरा ज्ञान पाना न केवल कठिन, बल्कि लगभग असंभव है। ज्ञान का संसार असीम है और हमारी मानवीय क्षमता सीमित। हर क्षेत्र में निरंतर नए शोध और खोजें होती रहती हैं, इसलिए किसी भी विषय पर पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है। 


यह कथन — "अधूरा ज्ञान घातक होता है" — तब सही प्रतीत होता है जब कोई व्यक्ति अपने अधूरे ज्ञान को ही पूर्ण सत्य मानकर, उस पर अंध-विश्वास करता है और उस पर आधारित निर्णय लेता है। ऐसे निर्णय प्रायः गलत साबित हो सकते हैं और हानि का कारण बन सकते हैं।


अधूरा ज्ञान होना स्वाभाविक है — हर व्यक्ति की क्षमता सीमित होती है और ज्ञान असीम होता है, इसलिए हर व्यक्ति का ज्ञान अधूरा ही होता है। वास्तव में, अधूरा ज्ञान होना स्वाभाविक है।


महत्वपूर्ण यह है - 


🔹 हम यह स्वीकार करें कि हमारा ज्ञान सीमित है।  

🔹 जिज्ञासु बने रहें और सीखने की निरंतर कोशिश करें।  

🔹 जहाँ आवश्यक हो, वहाँ विशेषज्ञों से मार्गदर्शन लें।  

🔹 सबसे अहम – अपने अधूरे ज्ञान पर अंध-विश्वास न करें।


मुख्य निष्कर्ष - अधूरा ज्ञान घातक नहीं, अधूरे ज्ञान पर अंध-विश्वास घातक हो सकता है। इसलिए ज्ञान बढ़ाओ और जिज्ञासु बनो। 


सादर,

केशव राम सिंघल ✍️

शनिवार, 5 अप्रैल 2025

दास्ताँ – 5 – गांधारी का प्रण

दास्ताँ – 5 – गांधारी का प्रण

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गांधार नरेश सुबल थे अति ज्ञानी,

राज्य समृद्ध और राजा था दानी। 

पुत्री एक जिसका रूप अनोखा, 

गांधारी नाम, सुशील, सलोना।


भविष्यवक्ता गणुधर ने जन्मपत्री खोली, 

भविष्य की गणनाएँ उसने यूँ बोलीं—

राजकुमारी का होगा उच्च विवाह, 

तप की होगी उसमें असीम चाह।


सौभाग्य और समर्पण भरपूर होगा, 

नेत्रों में ज्योति, पर तिमिर बसेगा। 

महलों में रह वह साधना करेगी, 

त्याग की मूर्ति वह हरदम रहेगी।


दीर्घायु होगी, समर्पण होगा अनूठा,

सम्पन्नता संग होगी त्याग की रूपा। 


यह सुन राजा सुबल कुछ घबराए, 

कुछ पल ठहरे, फिर हौले मुस्काए, 

भगवान की लीला भला कौन जाने,

मन समझाया, शुभ होगा यही माने। 


राजमहल में रहकर शिक्षा पाई, 

धर्म की गूढ़ता गांधारी में समाई।

सखियों संग राजकुमारी सैर को जाती, 

मंदिर में आराधना कर शीश नवाती। 


उसे लगती थी आराधना प्यारी, 

तपस्विनी सा रूप वह थी गुणकारी। 

सौंदर्य अद्वितीय, निर्मल और दिव्य,

धर्मनिष्ठा संग स्वभाव रूप भी शुभ्र।


हस्तिनापुर में,

भीष्म और विदुर विचार में डूबे, 

धृतराष्ट्र विवाह हेतु चिंतनशील हुए।

माँ अंबिका चिंता में घुली जातीं, 

वंश वृद्धि की आशा लगातीं।


धृतराष्ट्र बोले, "मैं हूँ नेत्रहीन, 

कैसे करूँ किसी का जीवन संगीन? 

न बंधन चाहूँ, न संग किसी का, 

किसे दूँ सहारा, कौन बने दिशा?"


पर अंबिका ने ठाना संकल्प, 

राजवंश का यही एक विकल्प। 

"राजा का विवाह अनिवार्य रहेगा, 

वंशज के बिना राजकुल अधूरा रहेगा।"


उधर गांधारी ने शिव चरणों में शीश नवाया, 

उसके मन में यह अद्भुत वरदान समाया  - 

"हे महादेव! कृपा बरसाओ, 

सौ पुत्रों का सुख दिखलाओ।"


तभी सखी दौड़ी आई, ख़ुशियाँ संग लाई,

"राजकुमारी, आओ, चलो, बुलावा आया। 

आया है अभी हस्तिनापुर दूत का प्रस्ताव,

कुरु राजवंश से जुड़ने का मिला है दाँव।"


राजकुमारी सकुचाई,मौन मुस्काई,

ह्रदय में उठी भावों की अंगड़ाई। 


गांधार नरेश ने किया आर्यावर्त दूत का सत्कार,

भीष्म ने सराहा गांधारी का रूप और संस्कार। 


गांधारी ने चाही प्रियतम की एक झलक, 

उसके मन में थी यही एक मात्र ललक। 

पर सुना, धृतराष्ट्र यहाँ नहीं आए, 

यह सुन कहीं सपने बिखर न जाएँ।


एक ओर गांधार, छोटा सा राज्य, 

दूजा समृद्ध आर्यवर्त का साम्राज्य। 

खुशी खुशी सुबल ने किया प्रस्ताव स्वीकार, 

धृतराष्ट्र संग गांधारी का भावी जीवन संसार।


गांधारी की मौन उदासी देख, 

प्रिय दासी आई बहुत समीप,

"अब तुम्हारा सपना साकार हुआ,

हस्तिनापुर की तुम शान बनीं।" 


गांधारी के मन में उठे घने सवाल, 

धृतराष्ट्र का स्वभाव रूप कैसा होगा? 

पर करुवंश के राजा अविवाहित रहे, 

तो वंशज बिना राज्य कैसे चलेगा?


उधर भीष्म भी सोच में पड़े थे, 

क्या सत्य छिपाना उचित है? 

गांधारी को क्या पूरा सच बतलाऊँ? 

या कुरुवंश की नाव सुरक्षित बचाऊँ?


सत्य आज नहीं तो कल खुलेगा, 

भविष्य सब कुछ सह लेगा। 

हस्तिनापुर को उत्तराधिकारी चाहिए, 

राजधर्म में मौन ही श्रेयस्कर रहेगा।


गांधारी हस्तिनापुर आ पहुँची है, 

विवाह भी संपन्न हो चुका है। 

असत्य से पर्दा उठ चुका है, 

गांधारी सत्य जान चुकी है।


विवाह में जयकार, मंत्र स्वरों की गूंज,

चारों ओर हर्ष, सुगन्धित फूलों की धूम। 

गांधारी मन ही मन व्यथित रही,

पति संग सहानुभूति में निमग्न रही।


लिया प्रण पति संग निभाने का, 

जीवन भर आंखों पर पट्टी बाँधने का। 

अब वह भी देखेगी नहीं यह संसार, 

पति संग निभाएगी हर संस्कार।


प्रजा ने सुना तो दर्शन को हुई आतुर, 

ऐसी पतिव्रता अद्भुत, अद्वितीय। 

समर्पण की पराकाष्ठा, नारी की सूरत, 

गांधारी का जीवन बना त्याग की मूरत।


प्रसंगवश  

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गांधारी धार्मिक और कर्तव्यनिष्ठ थीं। उन्होंने अपने पुत्रों से अत्यधिक प्रेम किया, किंतु दुर्योधन के प्रति उनके मोह ने उन्हें कई बार धर्मसंकट में डाल दिया। महाभारत युद्ध के बाद उन्होंने धृतराष्ट्र के साथ वन में अध्यात्म और साधना का जीवन व्यतीत किया। श्रीकृष्ण को उन्होंने अपने पुत्रों की मृत्यु के लिए उत्तरदायी माना और उनके प्रति क्रोध भी प्रकट किया। किंतु गांधारी का सबसे महान त्याग का प्रण उनकी आँखों की पट्टी थी, जिसे उन्होंने जीवनभर निभाया। 


सादर,

केशव राम सिंघल 

प्रतीकात्मक चित्र गांधार महल - साभार NightCafe 


शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

दास्ताँ - 4 - प्राचीन भारत

दास्ताँ - 4 - प्राचीन भारत 

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भारत महान देश 

विशाल और समृद्ध इतिहास 

प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और परम्पराएँ 

हड़प्पा सभ्यता से शुरू होकर 

वैदिक काल, बौद्ध और जैन प्रभाव 

और फिर मौर्य साम्राज्य के महत्वपूर्ण दौर से गुज़री। 


भारत का अतीत 

विविधता और निरंतरता का अनूठा मिश्रण 

जहाँ विभिन्न धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों ने 

सह-अस्तित्व में रहकर 

एक समृद्ध ताने-बाने को जन्म दिया।


उत्तर-पश्चिम की तरफ सिंधु घाटी में मोहनजोदड़ो - 

इस प्राचीन शहर में घर और गलियाँ  

पाँच हज़ार साल से भी ज़्यादा समय से अस्तित्व में रहे 

मोहनजोदड़ो - एक प्राचीन और सुविकसित सिंधु सभ्यता थी  

सिंधु सभ्यता  तत्कालीन मानव जीवन के रहन-सहन का प्रतिनिधित्व करती है। 


भारत की प्राचीन सभ्यता 

केवल सिंधु घाटी और वैदिक काल तक 

सीमित नहीं रही, 

बल्कि आगे बढ़ते हुए कई महान राजवंशों ने इसे समृद्ध किया।  


चंद्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में 

भारत का पहला विशाल 

मौर्य साम्राज्य (321-185 ईसा पूर्व) स्थापित हुआ।  


चाणक्य ने 

राजनीति और अर्थव्यवस्था पर

'अर्थशास्त्र' की रचना की। 


अशोक महान ने 

कलिंग युद्ध के बाद 

अहिंसा और बौद्ध धर्म को अपनाकर 

शांति और धर्म का संदेश दिया।


गुप्त साम्राज्य (319-550 ईस्वी) 

भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग 

चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के नेतृत्व में 

कला, साहित्य, विज्ञान और गणित में अद्भुत प्रगति हुई 

इसी काल में आर्यभट्ट ने 'शून्य' की अवधारणा दी 

और 

कालिदास जैसे महान साहित्यकारों ने संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया।  


दक्षिण भारत में चोल साम्राज्य (9वीं-13वीं शताब्दी) ने

मजबूत नौसैनिक शक्ति विकसित की 

और 

दक्षिण पूर्व एशिया तक 

भारतीय संस्कृति का विस्तार किया। 


चोल साम्राज्य के शासनकाल में भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ -

बृहदेश्वर मंदिर 

स्थापत्य कला का एक अनुपम उदाहरण है।  


विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ईस्वी) काल में 

दक्षिण भारत में 

कला, संगीत, मंदिर निर्माण और व्यापार 

खूब फला-फूला। 


मुगल साम्राज्य (1526-1857 ईस्वी) काल में 

बाबर से लेकर औरंगजेब तक 

मुगलों ने भारत में 

एक समृद्ध सांस्कृतिक और प्रशासनिक प्रणाली विकसित की - 

अकबर की धार्मिक सहिष्णुता, 

शाहजहाँ की स्थापत्य कला (ताजमहल) 

और 

मुगलों का विस्तारित साम्राज्य इस काल की विशेषताएँ थीं।  

 

भारत हर समय बदल रहा था 

और 

प्रगति कर रहा था। 


भारत के लोग  

फारसियों, मिस्रियों, यूनानियों, चीनी, अरबों, मध्य एशियाई और भूमध्य सागर के 

लोगों के साथ घनिष्ठ संपर्क में आए।   


भारत के लोगों ने उन्हें प्रभावित किया 

और 

भारत उनसे प्रभावित हुआ 

भारत के लोगों का  सांस्कृतिक आधार इतना मजबूत था 

कि वह लोगों को प्रभावित कर सके। 


भारत ने 

बाहरी प्रभावों को आत्मसात किया

फिर भी अपनी मूल पहचान को बनाए रखा।


हिमालय - पुराने मिथक और किंवदंतियों से बहुत निकट से जुड़ा हुआ है

हिमालय -  जिसने हमारे विचारों और साहित्य को बहुत प्रभावित किया 

पहाड़ों के प्रति हमारा प्रेम 

जीवन, शक्ति और सौंदर्य से भरपूर। 


सिंधु जिससे हमारे देश को भारत और हिंदुस्तान कहा जाता था 

और 

अब इसे इंडिया और भारत के नाम से जाना जाता है। 


बहुत सारी नदियाँ - 

गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, कावेरी, नर्मदा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा, महानदी आदि। 


भारत की सभ्यता और संस्कृति 

उत्थान और पतन 

महान और गौरवशाली इतिहास 

मनुष्यों के साहसिक कार्यों से भरपूर 

मन की खोज 

जीवन की समृद्धि और पूर्णता 

विकास और क्षय के उतार-चढ़ाव 

जीवन और मृत्यु के उतार-चढ़ाव  

प्राचीन मूर्तिकला भित्तिचित्र - 

अजंता, एलोरा, एलिफेंटा गुफाएँ 

विभिन्न स्थानों पर  सुंदर इमारतें  

जहाँ हर पत्थर 

भारत के अतीत की कहानी कहता है। 


भारत की यात्रा कभी रुकी नहीं, 

यह निरंतर प्रवाहमान रही। 


प्रत्येक सभ्यता

प्रत्येक साम्राज्य

प्रत्येक कालखंड ने 

भारत की विरासत को और अधिक समृद्ध बनाया।  


आज भी भारत 

अपने प्राचीन ज्ञान, 

सांस्कृतिक विविधता 

और 

आधुनिक प्रगति के संगम से 

आगे बढ़ रहा है। 


विज्ञान, कला, संगीत, आध्यात्मिकता, और दर्शन के क्षेत्र में 

भारत की खोज जारी है।  


संस्कृति की यह धारा 

कभी रुकी नहीं

कभी थमी नहीं

हर युग में बहती रही 

संजोती रही 

गढ़ती रही।  


सादर,

केशव राम सिंघल 


प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 


दास्ताँ - 3 - मिर्जा ग़ालिब

दास्ताँ - 3 - मिर्जा ग़ालिब

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विश्व-साहित्य में उर्दू की सबसे बुलंद आवाज़ के तौर पर

पहचाने जाने वाले

और

सबसे अधिक सुने-सुनाए जाने वाले महान शायर के तौर पर

मिर्जा ग़ालिब का नाम सबसे ऊपर आता है।

पूरा नाम - मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान

उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के एक महान शायर

इन्होने फ़ारसी कविता के प्रवाह को

हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाया।


वे उर्दू और फ़ारसी के महान शायर थे

लेकिन उनकी उर्दू शायरी को अधिक प्रसिद्धि मिली।

उनकी अधिकांश ग़ज़लें उर्दू में थीं

जबकि गद्य, जैसे 'दस्तंबू', उन्होंने फ़ारसी में लिखा।


मुग़ल काल के आख़िरी शासक

बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि

मिर्जा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर, 1797 को आगरा, उत्तर प्रदेश में

और मृत्यु 15 फ़रवरी, 1869 को दिल्ली में।


हालाँकि मिर्जा गालिब ने

सीधे तौर पर स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में नहीं लिखा

पर 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान

दिल्ली में हुई तबाही और लोगों की पीड़ा का ज़िक्र

'दस्तंबू' नाम की किताब में अपनी रचनाओं में किया

जो उन्होए फारसी में लिखी।


ग़ालिब सहिष्णुता के सिद्धांत के प्रबल समर्थक थे।


ग़ालिब आर्थिक कठिनाइयों से हमेशा जूझते रहे

विद्रोह के कारण ग़ालिब की आय के स्रोत

ब्रिटिश सरकार से मिलने वाली पेंशन

और

बहादुरशाह से मिलने वाला वजीफा

बंद हो गए थे

जिससे उन्हें आर्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ा

उनकी पूरी ज़िंदगी तंगी में गुज़री, और वे हमेशा कर्ज़ में रहे।


ग़ालिब ने फारसी भाषा में लिखी 'दस्तंबू' में लिखा -

1857 की त्रासदियों ने उन्हें और उनके शहर (दिल्ली) को असाध्य घाव दिए

उन्होंने विद्रोह का वर्णन करने के लिए

कुछ सबसे कठोर शब्दों का इस्तेमाल किया


'दस्तंबू' में ग़ालिब ने विद्रोह की विभीषिका

और

समाज की स्थिति का वर्णन किया

लेकिन पूरी तरह ब्रिटिश दृष्टिकोण के साथ

ग़ालिब सीधे तौर पर स्वतंत्रता संग्राम के पक्षधर नहीं थे

बल्कि 1857 के विद्रोह को एक त्रासदी के रूप में देखते थे

उन्होंने सामाजिक स्थिति का वर्णन किया

लेकिन राजनीतिक रूप से निष्क्रिय रहे।


ग़ालिब तटस्थ थे और उनका दृष्टिकोण ब्रिटिश सरकार के पक्ष में झुका हुआ था।


'उर्दू-ए-मुअल्ला' मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा लिखे गए खतों का संकलन है

ग़ालिब के ये पत्र उर्दू गद्य के विकास में मील का पत्थर माने जाते है

उर्दू गद्य का सहज रूप इन खतों में झलकता है

जिसमें पारंपरिक औपचारिक भाषा को छोड़कर

बोलचाल की भाषा में पत्र लिखे गए

जिससे उर्दू गद्य सरल और स्वाभाविक हो गया।


ग़ालिब के पत्रों में ग़ालिब का हास्य, व्यंग्य, दर्द, दर्शन, और उनकी संवेदनशीलता झलकती है।

वे न केवल व्यक्तिगत भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं, बल्कि समाज और राजनीति पर भी अपनी राय देते हैं।


ग़ालिब के पत्रों में साहित्यिक विचार, जीवन-दर्शन और आत्मनिरीक्षण देखने को मिलता है।

ग़ालिब के पत्रों को पढ़कर उनके विचारों की गहराई और उनके व्यक्तित्व की अनूठी झलक मिलती है।

ग़ालिब अपने पत्रों के बारे में कहते हैं -

"मैंने अपने पत्रों को बातचीत बना दिया है…

दोस्ती और आत्मीयता का एक जरिया

जो इन्हें पढ़ेगा

समझेगा कि मुझसे बातें कर रहा है।"


ग़ालिब के ख़त

न केवल उनके युग के दस्तावेज़ हैं

बल्कि उर्दू साहित्य का एक बहुमूल्य ख़ज़ाना भी हैं

इन्हें पढ़कर हमें उनके समय की परिस्थितियों

और

उनके व्यक्तित्व को समझने का अवसर मिलता है।


उनके लिखे पत्रों में उनका दुःख और निराशा झलकती है।


मिर्ज़ा ग़ालिब की चुनी हुईं रचनाएँ -


(1) ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता, अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि हमारी क़िस्मत में यह नहीं लिखा था कि हमें अपने प्रिय का सानिध्य (मिलन) मिले। अगर हम और जीते रहते, तो बस यही इंतज़ार करते रहते। इस रचना में ग़ालिब ने प्रेम, विछोह और नियति की मजबूरी को व्यक्त किया है।


(2) दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यों, रोएंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि दिल कोई पत्थर (संग) और ईंट (ख़िश्त) तो नहीं है, जो दर्द महसूस न करे। जब भावनाएँ उमड़ती हैं, तो आँसू आना स्वाभाविक है। इस रचना में मानवीय संवेदनाओं की कोमलता को दर्शाया गया है।


(3) हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि इंसान की इच्छाएँ अनंत होती हैं। एक इच्छा पूरी होती नहीं कि दूसरी जन्म ले लेती है। यह रचना जीवन की असंतुष्टि और अपूर्णता को दर्शाती है।


(4) बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि यह दुनिया बच्चों के खेलने का मैदान (बाज़ीचा) है। यहाँ हर दिन कुछ नया तमाशा होता रहता है, मानो यह सब एक खेल हो। ग़ालिब यहाँ जीवन की नश्वरता और उसकी असारता को प्रकट करते हैं।


(5) न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता, डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।


भावार्थ - ग़ालिब कहते हैं कि जब कुछ नहीं था, तब भी ईश्वर था। यदि कुछ भी नहीं होता, तब भी ईश्वर की सत्ता बनी रहती। लेकिन जैसे ही अस्तित्व आया, समस्याएँ भी आईं। ग़ालिब की यह रचना दार्शनिक विचारों को प्रकट करती है।


ग़ालिब की शायरी का आज भी भारतीय साहित्य और सिनेमा में व्यापक प्रभाव है। उनके कई शेर फिल्मों और ग़ज़लों में इस्तेमाल किए जाते हैं, जिससे उनकी लोकप्रियता आज भी बनी हुई है।


सादर,

केशव राम सिंघल

साभार गूगल - मिर्ज़ा ग़ालिब छायाचित्र 

मंगलवार, 25 मार्च 2025

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति  

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लगभग 13.8 अरब साल पहले 

एक अत्यंत गर्म और सघन बिंदु में 

समय, स्थान, और पदार्थ सब एक साथ संकुचित थे

एक विशाल विस्फोट हुआ 

और 

फिर ब्रह्माण्ड तेजी से फैलने लगा और ठंडा होने लगा। 


इसी विस्फोट के बाद -

समय और स्थान   का जन्म  हुआ,

कुछ ही पलों में प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन जैसे मूल कण बने

और 

वह बिंदु विस्फोट के साथ फैलने लगा। 


वह अत्यंत गर्म और सघन बिंदु ऐसा था 

जिस पर सामान्य भौतिक नियम 

(जैसे समय, स्थान, और गुरुत्वाकर्षण के नियम) 

लागू नहीं होते थे। 


लगभग 380,000 साल बाद 

जब ब्रह्माण्ड पर्याप्त ठंडा हुआ 

तो मूल कणों ने मिलकर हाइड्रोजन और हीलियम जैसे हल्के तत्व बनाए।


फिर अगले लाखों-करोड़ों सालों में 

गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से 

गैस के बादल सघन हुए 

जिससे तारे और आकाशगंगाएँ बनीं। 


विस्फोट वह "शून्य क्षण" था 

जिससे समय और स्थान का जन्म हुआ।


विस्फोट से पहले क्या था 

यह अभी भी अनसुलझा है। 


विस्फोट से पहले की स्थिति को कभी समझा जा सकेगा, 

या यह हमेशा एक दार्शनिक प्रश्न बना रहेगा?


सादर,

केशव राम सिंघल 

प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 


शनिवार, 22 मार्च 2025

सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर की अंतरिक्ष यात्रा – जीवन की अनमोल सीख

सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर की अंतरिक्ष यात्रा – जीवन की अनमोल सीख 

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नौ महीने अंतरिक्ष की अनंत गहराइयों में बिताकर सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर धरती पर लौटे—एक ऐसी यात्रा जो हमें साहस और संभावनाओं की सीख देती है। आइए, जाने कि वे सीख क्या हो सकती हैं।
1. धैर्य, दृढ़ता और अनुशासन – मुश्किलों में संयम और डर से आगे बढ़ने की सीख – अंतरिक्ष में नौ महीने बिताना धैर्य, दृढ़ता और अनुशासन की कठिन परीक्षा है। अंतरिक्ष जैसी चुनौतीपूर्ण और अनिश्चित परिस्थितियों में इतना लंबा समय बिताना आसान नहीं है। यह हमें सिखाता है कि बड़े लक्ष्यों के लिए संयम और निरंतरता जरूरी है।
2. साहस और अनुकूलन क्षमता – अप्रत्याशित परिस्थितियों में ढलने की कला – जिस प्रकार अंतरिक्ष यात्रियों सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर ने अपने आपको अलग-अलग और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में खुद को ढाला, उससे हमें सीख मिलती है कि कठिनाइयों से घबराने के बजाय उनके अनुरूप खुद को ढालना चाहिए। अंतरिक्ष स्टेशन में तकनीकी खराबी या शून्य गुरुत्व जैसी स्थितियों में ढलना उनके साहस को दर्शाता है।
3. टीम वर्क और तैयारी का महत्व – सहयोग और योजना से बड़ी सफलता – किसी भी कार्य की सफलता टीम वर्क और उसकी तैयारी पर निर्भर करती है। जब सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर अंतरिक्ष में थे, तब नासा की टीम निरंतर संपर्क में रही और उनकी सुरक्षा व मिशन की सफलता सुनिश्चित की। यह दिखाता है कि टीम वर्क और सही तैयारी किसी भी चुनौती को पार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जिस प्रकार अंतरिक्ष मिशन में हर कदम पर वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और अंतरिक्ष यात्रियों का सहयोग और समन्वय होता है। एक आम इंसान के लिए यह सीख है कि लक्ष्य हासिल करने के लिए दूसरों के साथ मिलकर काम करना और पहले से तैयारी करना कितना अहम है। जीवन में भी, चाहे वह परिवार हो, कार्यस्थल हो या समाज, टीम वर्क और सहयोग से ही बड़ी उपलब्धियाँ संभव हैं।
4. विज्ञान और नवाचार का सम्मान – तकनीक की शक्ति को अपनाएँ – अंतरिक्ष यात्रियों सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर की यह अंतरिक्ष यात्रा हमें वैज्ञानिक प्रगति की शक्ति का एहसास कराती हैं। इस यात्रा ने यह भी सिद्ध किया कि विज्ञान और नवाचार की मदद से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है। यह यात्रा हमें वैज्ञानिक प्रगति की शक्ति दिखाती है—चाहे वह अंतरिक्ष स्टेशन पर पौधे उगाना हो या नई तकनीकों का परीक्षण। इस यात्रा ने यह भी सिद्ध किया कि विज्ञान और नवाचार की मदद से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है। हमें भी जीवन में नई सोच, नवाचार और तकनीकी ज्ञान को अपनाना चाहिए।
5. पर्यावरण और पृथ्वी के प्रति जागरूकता – अपने ग्रह की कीमत समझें – अंतरिक्ष से पृथ्वी को देखने के बाद कई अंतरिक्ष यात्रियों ने हमें बताया कि हमारी पृथ्वी कितनी अनमोल और नाजुक है। यह हमें सीख देती है कि हमें अपने ग्रह की सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक होना चाहिए।
6. मानव क्षमताओं की कोई सीमा नहीं – असंभव को संभव बनाने की प्रेरणा – यह हमें अपनी सीमाओं को चुनौती देने की प्रेरणा देता है। अंतरिक्ष यात्राओं ने यह साबित किया है कि अगर इंसान ठान ले, तो वह असंभव को भी संभव कर सकता है। इससे हमें सीख मिलती है कि हमें भी अपने सपनों को साकार करने के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए।
7. डर और कमजोरियों से आगे बढे – अपने सपनों को साकार करें – अंतरिक्ष में रहना इंसान के लिए एक असाधारण चुनौती होती है, फिर भी अंतरिक्ष यात्री इसे सफलतापूर्वक कर दिखाते हैं। यह हमें सिखाता है कि हम अपने डर को पीछे छोड़कर किसी भी कठिनाई का सामना कर सकते हैं और अपने सपनों को साकार कर सकते हैं।
इस तरह, सुनीता विलियम्स और बुच विलमोर की यह यात्रा केवल वैज्ञानिक उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह हमें धैर्य, साहस, सहयोग, और अपने आसपास की दुनिया के प्रति जागरूक रहने की प्रेरणा भी देती है। यह यात्रा हमें सिखाती है कि सीमाएँ सिर्फ दिमाग की बेड़ियाँ हैं—इन्हें तोड़ें, और कोई भी मंजिल हमारी पहुँच से दूर नहीं।
सादर,
केशव राम सिंघल
प्रतीकात्मक चित्र अंतरिक्ष यात्री - साभार NightCafe 



गुरुवार, 20 मार्च 2025

शिक्षण पद्धति

शिक्षण पद्धति

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हाल ही में मुझे स्वीडिश सरकार द्वारा उठाए गए एक साहसिक कदम के बारे में जानकारी मिली। उन्होंने डिजिटल कक्षाओं (digital classrooms) को समाप्त करने और पुस्तकों, पेंसिलों तथा नोटबुक के उपयोग से पारंपरिक शिक्षण विधियों (traditional learning methods) को फिर से लागू करने का निर्णय लिया है। यह निर्णय छात्रों के लिए अत्यंत लाभकारी साबित होगा, क्योंकि इससे उनकी मानव बुद्धिमत्ता (human intelligence) में वृद्धि होगी, जिससे वे समस्याओं का विश्लेषण (problem analysis) कर उचित निर्णय (decision-making) लेने की क्षमता विकसित कर सकेंगे।


स्वीडन के इस कदम ने शिक्षा जगत में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है। शोध बताते हैं कि अत्यधिक स्क्रीन समय (screen time) बच्चों की पढ़ने की समझ (reading comprehension), ध्यान अवधि (attention span) और आलोचनात्मक सोच (critical thinking) पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। भौतिक पुस्तकों और हस्तलिखित नोट्स के माध्यम से सीखने पर जोर देकर, छात्र अपने संज्ञानात्मक कौशल (cognitive skills) को सशक्त बना सकते हैं, स्मृति प्रतिधारण (memory retention) को बढ़ा सकते हैं और बेहतर समस्या-समाधान (problem-solving) क्षमताओं का विकास कर सकते हैं।


यह सच है कि प्रौद्योगिकी (technology) के अपने फायदे हैं, जैसे सूचना तक त्वरित पहुँच (quick access to information) और इंटरैक्टिव सीखने (interactive learning) की सुविधा, लेकिन डिजिटल उपकरणों (digital tools) पर अत्यधिक निर्भरता गहन सीखने (deep learning) और विश्लेषणात्मक सोच (analytical thinking) में बाधा बन सकती है। शोधों से यह भी सिद्ध हुआ है कि हाथ से लिखने (handwriting) से स्क्रीन पर टाइप करने (typing on screen) की तुलना में जानकारी को बेहतर ढंग से याद रखा जा सकता है।


स्वीडन का यह दृष्टिकोण शिक्षा में संतुलन (balance in education) बनाए रखने के महत्व को दर्शाता है—जहाँ आवश्यक हो, वहाँ डिजिटल उपकरणों का उपयोग किया जाए, लेकिन मूलभूत शिक्षण कौशल (fundamental learning skills) को नुकसान पहुँचाए बिना।


पारंपरिक शिक्षण क्यों महत्वपूर्ण है?


पारंपरिक शिक्षण पद्धतियाँ तार्किक तर्क (logical reasoning), समस्या-समाधान (problem-solving) और स्वतंत्र निर्णय-क्षमता (independent decision-making) जैसे आधारभूत कौशलों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यदि प्रारंभिक स्तर पर डिजिटल उपकरणों का अत्यधिक उपयोग किया जाए, तो यह छात्रों की बुनियादी गणना (basic calculations) करने और विश्लेषणात्मक निर्णय लेने (analytical decision-making) की क्षमता को प्रभावित कर सकता है।


संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता


शिक्षा प्रणाली में एक संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है—प्रौद्योगिकी को धीरे-धीरे पेश किया जाए, यह सुनिश्चित करते हुए कि यह सीखने के पूरक (supplement to learning) के रूप में कार्य करे, न कि आवश्यक संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) को बाधित करने के रूप में। यदि अधिक देश स्वीडन के दृष्टिकोण को अपनाते हैं, तो छात्रों की समग्र बुद्धिमत्ता (overall intelligence), समझ (comprehension) और निर्णय-क्षमता (decision-making ability) में उल्लेखनीय सुधार देखा जा सकता है।


मेरा दृढ़ विश्वास है कि माध्यमिक स्तर (secondary level) तक की स्कूली शिक्षा पारंपरिक शिक्षण पद्धति पर आधारित होनी चाहिए, जहाँ छात्र पुस्तकों, पेंसिलों और नोटबुक का उपयोग करें, न कि केवल डिजिटल स्क्रीन पर निर्भर रहें। प्रौद्योगिकी का अत्यधिक उपयोग छात्रों को डिजिटल उपकरणों पर आश्रित बना रहा है, जिससे उनकी गणना करने की क्षमता (calculation ability) कम हो रही है और उनकी विश्लेषणात्मक सोच (analytical thinking) कमजोर हो रही है। अन्य देशों को भी इस दिशा में स्वीडन के दृष्टिकोण को अपनाने पर विचार करना चाहिए।


भारत में शिक्षण पद्धति की स्थिति


भारत में स्कूली शिक्षा की शिक्षण पद्धति काफी हद तक पारंपरिक है, हालांकि यह क्षेत्र, स्कूल के प्रकार (सरकारी, निजी, या अंतरराष्ट्रीय), और शहरी-ग्रामीण अंतर के आधार पर भिन्न होती है। पारंपरिक शिक्षण पद्धति से तात्पर्य आमतौर पर शिक्षक-केंद्रित दृष्टिकोण से है, जिसमें याद करने (rote learning), परीक्षा-उन्मुख शिक्षा (exam-oriented education), और पाठ्यपुस्तक-आधारित ज्ञान (textbook-based knowledge) पर जोर दिया जाता है। भारत में अधिकांश सरकारी और कई निजी स्कूलों में शिक्षण का तरीका अभी भी पारंपरिक है। इसमें ब्लैकबोर्ड-चॉक (blackboard-chalk) का उपयोग, एकतरफा व्याख्यान (lecture-based teaching), और छात्रों से अपेक्षा की जाती है कि वे पाठ को याद करें और परीक्षा में उस पर आधारित प्रश्नों का उत्तर दें। यह ऐतिहासिक ब्रिटिश औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली (British colonial education system) के प्रभाव की वजह से है, जिसमें अनुशासन और सैद्धांतिक ज्ञान (theoretical knowledge) पर बल दिया गया, साथ ही संसाधनों की कमी और शिक्षक-छात्र अनुपात (teacher-student ratio) का ऊँचा होना भी एक कारण है।


हालांकि, पिछले कुछ दशकों में बदलाव देखने को मिले हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) ने इस दिशा में कदम उठाए हैं, जिसमें रटने (rote learning) के बजाय अवधारणा-आधारित शिक्षा (conceptual learning), कौशल-विकास (skill development), और समग्र शिक्षा (holistic education) पर ध्यान देने की बात की गई है। निजी और अंतरराष्ट्रीय स्कूलों में, खासकर शहरी क्षेत्रों में, आधुनिक शिक्षण विधियाँ जैसे प्रोजेक्ट-आधारित शिक्षा (project-based learning), डिजिटल टूल्स (digital tools) का उपयोग, और इंटरैक्टिव कक्षाएँ (interactive classrooms) अधिक प्रचलित हो रही हैं। फिर भी, ये बदलाव पूरे देश में एकसमान नहीं हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक तरीके अभी भी हावी हैं।


संक्षेप में, भारत में स्कूली शिक्षा की शिक्षण पद्धति मुख्य रूप से पारंपरिक है, लेकिन आधुनिकीकरण (modernization) की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ रहे हैं।


आपका क्या विचार है?


मैं पाठकों से आग्रह करता हूँ कि वे अपने विचार साझा करें—भारत को किस प्रकार का शैक्षिक दृष्टिकोण (educational approach) अपनाना चाहिए?


सादर,

केशव राम सिंघल


प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe


मंगलवार, 18 मार्च 2025

दास्ताँ - 2 - दिल्ली में नमक हराम की हवेली

दास्ताँ - 2 - दिल्ली में नमक हराम की हवेली

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दिल्ली की हवेलियाँ और इमारतें ऐतिहासिक गाथाएँ सुनाती हैं। दिल्ली में नमक हराम की हवेली, चाँदनी चौक के कूचा घसीराम गली में है। कहा जाता है कि यह हवेली 19वीं सदी की शुरुआत में बनी थी। 'नमक हराम की हवेली' से सम्बंधित जानकारी के बारे में ऐतिहासिक प्रमाणों की कमी है।

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19वीं सदी की शुरुआत तक भारत की अनेक रियासतें, राजा-रजवाड़े ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी स्वीकार कर चुके थे, लेकिन कुछ रियासतें उस समय भी अंग्रेजों से लड़ रही थीं। उनमें से एक थे इंदौर के नौजवान महाराजा यशवंतराव होलकर। अनेक रियासतों ने अंग्रेजों के आगे सिर झुका लिया लेकिन होलकर ने ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी स्वीकार नहीं की, बल्कि अंग्रेजों से लड़ने का फैसला किया।

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सन् 1803 में पटपड़गंज के इलाके में मराठा दौलत राव सिंधिया और अंग्रेज़ों के बीच एक बड़ी लड़ाई हुई थी। यशवंतराव होलकर इस युद्ध में शामिल नहीं थे, लेकिन उन्होंने 1804 में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया था। भवानी शंकर खत्री, इंदौर के नौजवान महाराजा यशवंतराव होलकर के वफ़ादार थे। इस लड़ाई में खत्री ने महाराजा यशवंतराव के साथ विश्वासघात कर अंग्रेज़ों का साथ दिया था और उन्होंने महाराजा होलकर और मराठा सेना की खुफिया जानकारी अंग्रेजों को दे दी थी, इसलिए अंग्रेज़ों ने खत्री की अंग्रेजो के प्रति वफ़ादारी और महाराजा होलकर से की गई गद्दारी से खुश होकर उन्हें चाँदनी चौक में एक शानदार हवेली तोहफ़े में दी थी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जब दिल्ली में विद्रोह भड़का, तब से इस हवेली का नाम 'नमक हराम की हवेली' पड़ गया। भवानी शंकर खत्री के विश्वासघात से जुड़ी जानकारी मुख्य रूप से मौखिक परंपरा में ही मिलती है।

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समय के साथ, यह हवेली मौखिक इतिहास का हिस्सा बन गई और इसके नाम के पीछे की कहानी आज भी लोगों की स्मृतियों में है। यह एक पारंपरिक मुगल और राजपूत शैली की हवेली है, जो उस समय की शाही वास्तुकला को दर्शाती थी। हवेली की प्रमुख विशेषताएँ निम्न थीं- इसके बड़े प्रवेश द्वार– लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजे, जो अब जर्जर स्थिति में हैं। खूबसूरत झरोखे – राजस्थान और मुगल वास्तुकला से प्रेरित बालकनी और झरोखे। आलीशान आँगन, जिसमें पहले बड़े उत्सव और आयोजन होते थे। संगमरमर के खंभे और मेहराब– हवेली के आंतरिक हिस्सों में सुंदर नक्काशी थी, जो अब टूट-फुट चुकी है। अब यह हवेली खंडहर में तब्दील हो चुकी है और इसकी भव्यता की केवल कल्पना ही की जा सकती है।

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कुछ स्रोतों में यह हवेली 'घसीटा हवेली' या 'गद्दारों की हवेली' के रूप में भी वर्णित है। सुना कि हवेली में कुछ लोग अवैध कब्जा कर रहते हैं और कुछ पुराने किरायेदार भी हैं। यह हवेली एक ऐतिहासिक स्थल है, जिसके संरक्षण के लिए कोई पहल होती नहीं दिखाई दी और समय के साथ यह लुप्त होने कगार पर है। अब यह हवेली इतिहास में दबी एक भूली-बिसरी निशानी बनकर रह गई है।

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सादर,

केशव राम सिंघल

(संकलित जानकारी)

आलेख में प्रयुक्त चित्र साभार: Times Now Navbharat (स्रोत लिंक) 

दास्ताँ - 1 - अमीर ख़ुसरो

दास्ताँ - 1 - अमीर ख़ुसरो

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पूरा नाम - अबुल हसन यामुनुद्दीन अमीर ख़ुसरो

जन्म - 27 दिसंबर 1253, पटियाली गाँव, एटा जिला, उत्तर प्रदेश

निधन - अक्टूबर 1325, दिल्ली।

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अमीर ख़ुसरो भारतीय साहित्य और संगीत के अद्भुत सितारे थे।

वे चौदहवीं सदी के महान शायर, गायक, और संगीतकार थे।

वे सिर्फ एक कवि ही नहीं, बल्कि सूफियाना प्रेम और भक्ति के अद्भुत रचनाकार भी थे।

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उनकी लेखनी में भारतीयता और फारसी संस्कृति का अनूठा संगम देखने को मिलता है।

उन्हें "तोता-ए-हिंद" (भारत का तोता) कहा जाता था।

वे खड़ी बोली हिंदी के जन्मदाता भी माने जाते हैं और प्रथम मुस्लिम कवि थे, जिन्होंने हिंदी, हिंदवी और फारसी में एक साथ लिखा।

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अमीर ख़ुसरो ने विभिन्न भाषाओं में कई महत्वपूर्ण रचनाएँ लिखीं, जिनमें प्रमुख हैं -

- नूह-सिपहर – इसमें भारत की महानता का वर्णन किया गया है,

- मसनवी दुवाल-रानी-खिज्र खाँ – एक प्रेमकथा पर आधारित महाकाव्य,

- ख़ालिक़-बारी – हिंदी-फारसी शब्दों का संग्रह, जो तत्कालीन शब्दावली को दर्शाता है,

- मज्मूआ-ए-ग़ज़ल – जिसमें उनकी प्रसिद्ध ग़ज़लें संग्रहीत हैं,

- इजाज़-ए-ख़ुसरोवी – यह उनके काव्य और साहित्यिक प्रतिभा का सुंदर उदाहरण है।

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अमीर ख़ुसरो को भारतीय संगीत में कई नवाचारों के लिए जाना जाता है -

- क़व्वाली गायन शैली उन्हीं की देन है, जो आज भी सूफी संगीत का अभिन्न अंग है,

- माना जाता है कि उन्होंने ही सितार वाद्य यंत्र को विकसित किया।

- एक विशेष गायन शैली तराना को उन्होंने ईजाद किया।

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अमीर ख़ुसरो ने हिंदी में कई पहेलियाँ और मुकरियाँ लिखीं,

जो आज भी प्रसिद्ध हैं।

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मुकरियाँ

अर्थात् एक तरह की पहेली,

अर्थात् अमीर ख़ुसरो द्वारा निर्मित छंद की विधा,

जिसमें चार पंक्तियाँ होती हैं।

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उदाहरण के तौर पर पहेली और कुछ मुकरियाँ -

एक थाल मोती से भरा,

सबके सिर पर औंधा धरा।

उत्तर - आसमान और तारे

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मोरे अंगना जल बरसे, मोरा जियरा तरसे।

ऐसे दौड़ दौड़ आवे, मोती के दाने खावे।

उत्तर - मोर

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काली हूँ, पर गोरी हूँ,

रहती हूँ रसोई में,

जिसके सिर पर चढ़ जाऊँ,

वही चिल्लाए रोई-रोई।

उत्तर - तवे की रोटी

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ऐ री सखी, मैंने पहनी ऐसी चीज़,

जो टूट गई तो कोई ना रोया।

उत्तर - चूड़ी

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ऐ री सखी, मैं पानी में जाऊँ,

पर भीग ना पाऊँ।

उत्तर - मछली

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अमीर ख़ुसरो अपने आध्यात्मिक गुरु हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के परम भक्त थे।

जब उनके गुरु का निधन हुआ, तो वे इतने व्यथित हुए कि उन्होंने कहा -

गोरी सोवै सेज पर,

मुख पर डारे केस,

चल ख़ुसरो घर आपने,

रैन भई चहुँ देस।

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गुरु हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के निधन के कुछ ही समय बाद,

अक्टूबर 1325 में अमीर खुसरो का भी निधन हो गया,

उनकी इच्छा के अनुसार,

उन्हें हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के समीप दफ़नाया गया।

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अमीर ख़ुसरो न केवल एक महान कवि और संगीतकार थे,

वे भारतीय संस्कृति और परंपरा के सेतु भी थे,

उनकी कृतियाँ आज भी साहित्य प्रेमियों और संगीतज्ञों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं,

वे न केवल अपने समय में लोकप्रिय रहे,

बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक अमूल्य धरोहर छोड़ गए।

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सादर,

केशव राम सिंघल

चित्र - अमीर खुसरो साभार गूगल खोज

शनिवार, 15 मार्च 2025

बाद के लिए कुछ भी मत छोड़ो

 बाद के लिए कुछ भी मत छोड़ो 

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बाद में, परीक्षा की तैयारी ठीक से नहीं होती। 

बाद में, चाय ठंडी हो जाती है। 

बाद में, आपकी रुचि खत्म हो जाती है। 

बाद में, दिन रात में बदल जाता है। 

बाद में, लोग दूर हो जाते हैं। 

बाद में, लोग बड़े हो जाते हैं। 

बाद में, लोग बूढ़े हो जाते हैं। 

बाद में, जीवन की जरूरतें बदल जाती हैं। 

बाद में, समय बीत जाता है। 

बाद में, रिश्तों में दूरी आ जाती है।

बाद में, जो कहने का सोचा था, वह अनकहा रह जाता है।

बाद में, हिम्मत जवाब दे देती है।

बाद में, परिस्थितियाँ बदल जाती हैं।

बाद में, सपने अधूरे रह जाते हैं।

बाद में, आप वही इंसान नहीं रहते जो आज हैं।

बाद में, जो आज संभव था, वह असंभव हो जाता है।

बाद में, आपको पछतावा होगा कि जब आपके पास मौका था, तो आपने कुछ नहीं किया। 

बाद के लिए कुछ भी मत छोड़ो। 

आज जो कदम उठाओगे, वही कल की कहानी लिखेगा। 


सादर,

केशव राम सिंघल 

समय का प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 


शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

शिक्षा में त्रिभाषा फार्मूला

शिक्षा में त्रिभाषा फार्मूला

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भारत जैसे बहुभाषी देश में शिक्षा नीति का उद्देश्य न केवल ज्ञान देना है, बल्कि भाषाई विविधता को संरक्षित करना भी है। इसी उद्देश्य से त्रिभाषा फार्मूला लागू किया गया, लेकिन इस पर मतभेद बने हुए हैं।

 

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने एक बार फिर केंद्र सरकार पर हिंदी थोपने का आरोप लगाया है। उन्होंने अपने पत्र में लिखा, "हम हिंदी थोपने का विरोध करेंगे। हिंदी एक मुखौटा है, जबकि संस्कृत इसका छिपा हुआ चेहरा है।" केंद्र सरकार ने स्टालिन द्वारा लगाए गए आरोपों को खारिज किया है। मुख्यमंत्री स्टालिन ने अपने पत्र में कहा कि बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में मैथिली, ब्रजभाषा, बुंदेलखंडी और अवधी जैसी भाषाओं को हिंदी के प्रभुत्व ने खत्म कर दिया है। उन्होंने आरोप लगाया कि 25 से अधिक उत्तर भारतीय भाषाएँ हिंदी और संस्कृत के प्रभुत्व के कारण प्रभावित हुई हैं। उनका कहना है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में संस्कृत को बढ़ावा दिया जा रहा है और इसे राज्य सरकारों पर थोपने की कोशिश हो रही है। यदि तमिलनाडु त्रिभाषा नीति को स्वीकार कर लेता है, तो तमिल को नजरअंदाज कर दिया जाएगा और भविष्य में संस्कृत का दबदबा रहेगा।

 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के तहत त्रिभाषा फार्मूला क्या है?

 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तहत प्रस्तावित त्रिभाषा फार्मूला एक शैक्षणिक ढाँचा है, जिसके अनुसार बच्चों को तीन भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए। पहली भाषा आमतौर पर छात्र की मातृभाषा या राज्य की क्षेत्रीय भाषा होगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के मुताबिक, भारत के सभी छात्रों को कम से कम तीन भाषाएँ सीखनी होंगी, जिनमें से दो भारतीय भाषाएँ होनी चाहिए और तीसरी अंग्रेज़ी होनी चाहिए। यह फार्मूला सरकारी और निजी दोनों स्कूलों पर लागू होता है।

 

समाधान क्या हो सकता है?

 

त्रिभाषा फार्मूला में हिंदी या संस्कृत को लेकर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए। यह मुख्यतः छात्रों की इच्छा पर निर्भर होना चाहिए। भारत की शिक्षा प्रणाली में त्रिभाषा फार्मूले को लेकर अक्सर बहस होती है, क्योंकि यह भाषा, सांस्कृतिक पहचान और व्यावहारिक उपयोगिता से जुड़ा हुआ मुद्दा है। सर्वसम्मत समाधान इस प्रकार हो सकता है -

 

मातृभाषा को प्राथमिकता - प्राथमिक शिक्षा (कम से कम 5वीं कक्षा तक) मातृभाषा में होनी चाहिए, जिससे बच्चों की बौद्धिक क्षमता और समझ बेहतर हो। इससे बच्चों में शिक्षा के प्रति रुचि बढ़ेगी और उनकी मौलिक सोच का विकास होगा।

 

संपर्क भाषा का विकल्प - मातृभाषा के अलावा हिंदी, संस्कृत, या कोई अन्य भारतीय भाषा सीखने की छूट होनी चाहिए। जिनकी मातृभाषा हिंदी या संस्कृत है, उन्हें अन्य भारतीय भाषाओं में से कोई भाषा चुनने का विकल्प मिलना चाहिए।

 

वैश्विक संपर्क भाषा - अंग्रेजी या अन्य किसी विदेशी भाषा को सीखने की सुविधा होनी चाहिए, जिससे छात्रों को वैश्विक स्तर पर अवसर मिल सकें।

 

त्रिभाषा फार्मूला में संस्कृत को अन्य भारतीय भाषाओं के बराबर रखा गया है, जबकि यह एक शास्त्रीय भाषा है। इसे अनिवार्य बनाने की बजाय विकल्प के रूप में ही रखना उचित होगा।

 

इस प्रकार गैर-हिंदी राज्य, जैसे तमिलनाडु के छात्र पढ़ेंगे -

 

(1) तमिल

 

(2) तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, बंगाली, हिंदी या कोई अन्य भारतीय भाषा

 

(3) अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा

 

वहीं, हिंदी-भाषी राज्य राजस्थान के छात्र पढ़ेंगे -

 

(1) हिंदी

 

(2) तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, बंगाली, तमिल या कोई अन्य भारतीय भाषा

 

(3) अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा

 

इससे त्रिभाषा फार्मूला भी रहेगा और हिंदी या संस्कृत को किसी पर थोपने की बात नहीं होगी। राज्य सरकारों और शिक्षण संस्थानों को अधिक से अधिक भाषाओं के अध्ययन की व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि छात्रों को समुचित विकल्प मिल सके। त्रिभाषा फार्मूले को कठोर नियमों की बजाय लचीलेपन के साथ लागू किया जाना चाहिए।

 

त्रिभाषा फार्मूले का उद्देश्य भाषाई समावेशिता को बढ़ावा देना है, न कि किसी भाषा को थोपना। राज्य सरकारों और शिक्षण संस्थानों को अधिकतम भाषाई विकल्प प्रदान करने चाहिए, जिससे छात्र अपनी सुविधा और रुचि के अनुसार भाषा चुन सकें। हिंदी-भाषी राज्यों में भी अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने की प्रवृत्ति बढ़ाने की जरूरत है। इससे विविधता को संजोने के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता को भी मजबूती मिलेगी।

 

सादर,

केशव राम सिंघल

 


बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

रूस और यूक्रेन

रूस और यूक्रेन 
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अट्ठारवीं शताब्दी में रूसी महारानी कैथरीन द ग्रेट ने यूक्रेन के पूरे इलाके को अपने साम्राज्य में मिला लिया था। बीसवीं सदी की शुरुआत में यूक्रेन का ज़्यादातर हिस्सा रूसी साम्राज्य का हिस्सा था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, यूक्रेन का ज़्यादातर हिस्सा सोवियत संघ का हिस्सा बन गया। 1918 में तीन साल के लिए यूक्रेन आजाद हुआ, लेकिन ब्लादिमीर लेनिन के प्रयास पर यूक्रेन को सोवियत संघ में शामिल कर लिया गया और 1922 में यूक्रेन सोवियत संघ का हिस्सा बन गया। सोवियत संघ के दौरान, यूक्रेन में राष्ट्रवादी और अलगाववादी भावना बढ़ी। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद यूक्रेन आज़ाद हो गया। सोवियत संघ के विघटन के बाद, यूक्रेन ने होलोडोमोर की याद में अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाई और अनेक पश्चिमी देशों के साथ राजनयिक-आर्थिक सम्बन्ध कायम किए, जो रूस को पसंद नहीं आए। रूस चाहता था कि यूक्रेन पश्चिमी देशों के साथ नजदीकी न बढ़ाए। 

फरवरी 2014 में रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया, और अप्रैल 2014 में रूस-समर्थित अलगाववादियों ने डोनबास क्षेत्र में विद्रोह किया, जिससे यूक्रेन और रूस के बीच संघर्ष तेज हो गया। मैदान क्रांति के कारण फरवरी 2014 में विक्टर यानुकोविच को यूक्रेन में सत्ता से हटा दिया गया टी वह रूस बाग़ गए थे। रूस और यूक्रेन के बीच जंग छिड़ी, जिसमें चौदह हजार से भी अधिक लोग मारे गए। रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया। 11 फरवरी 2015 को बेलारूस की राजधानी मिन्स्क में रूस, यूक्रेन, जर्मनी और फ़्रांस के नेता इकट्ठे हुए और शान्ति समझौता हुआ, जिससे जंग तो रुक गई पर स्थाई समाधान नहीं निकला। हालांकि, मिन्स्क समझौते के बाद भी संघर्ष पूरी तरह नहीं रुका और समय-समय पर युद्धविराम उल्लंघन होते रहे। रूस और यूक्रेन के बीच समय-समय पर तनाव बढ़ता रहा। अप्रेल 2021 में रूस ने यूक्रेन बॉर्डर पर एक लाख से ज्यादा सैनिक तैनात कर दिए। इस समय अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बाइडेन ने यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को भरोसा दिलाया कि अमेरिका रूस के खिलाफ यूक्रेन की मदद करेगा। नवम्बर 2021 में रूस ने यूक्रेन बॉर्डर पर सेना की तैनाती और बढ़ा दी। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने रूसी राष्ट्रपति पुतिन से जंग शुरू न करने को कहा तो पुतिन ने शर्त रखी कि यूक्रेन को नाटो में शामिल नहीं किया जाए। 26 जनवरी 2022 को अमेरिका और नाटो ने कहा कि वे किसी भी संप्रभु देश को नाटो में शामिल होने से नहीं रोक सकते, हालांकि वे रूस की सुरक्षा चिंताओं पर चर्चा के लिए तैयार हैं। इस दौरान रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चलता रहा और 21 फरवरी 2022 को रूस ने यूक्रेन के दोनेत्स्क और लुहांस्क प्रदेशों को जीतने के बाद आजादी की मान्यता दे दी और 24 फरवरी को रूस ने यूक्रेन के खिलाफ स्पेशल मिलट्री ऑपरेशन का एलान कर दिया। रूस ने यूक्रेन की राजधानी कीव समेत प्रमुख शहरों पर हवाई हमले किए और पूर्व, उत्तर और दक्षिण तीन तरफ से जमीनी हमले शुरू कर दिए।  24 फरवरी 2022 को अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडन ने यूक्रेन-रूस संघर्ष में तबाही और मौतों के लिए रूस को जिम्मेदार ठहराया, रूस पर कई आर्थिक प्रतिबन्ध लगाए और यूक्रेन को हथियारों से मदद की। जब तक बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति रहे, अमेरिका यूक्रेन का समर्थन और रूस का विरोध कर रहा था। नवम्बर 2024 को हुए चुनावों में डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए और 20 दिसंबर 2024 को उन्होंने विधिवत अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में शपथ ले ली। उसके बाद अमेरिका की नीतियों में रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर परिवर्तन देखने को मिला। 

















अमेरिका ने मंगलवार 25 फरवरी 2025 को संयुक्त राष्ट्र महासभा (UN General Assembly) में यूक्रेनी प्रस्ताव के खिलाफ रूस के समर्थन में वोटिंग की। यूक्रेन ने रूस के साथ युद्ध को 3 साल पूरे होने पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्ताव पेश किया था। इस प्रस्ताव में रूसी हमले की निंदा करने और यूक्रेन से तत्काल रूसी सेना को वापस बुलाने की मांग की गई थी। अमेरिका ने अपनी पुरानी नीतियों के उलट साथी यूरोपीय देशों के खिलाफ जाकर इस प्रस्ताव के विपक्ष में मतदान किया। जबसे रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध की शुरुआत हुई, तब से पहली बार अमेरिका और इजराइल ने यूक्रेन के खिलाफ वोट किया है। भारत और चीन समेत 65 देशों ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया। प्रस्ताव का समर्थन करने वालों में जर्मनी, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे प्रमुख यूरोपीय देश शामिल हैं। यह प्रस्ताव 18 के मुकाबले 93 मतों से पारित हो गया।

संयुक्त राष्ट्र महासभा में पेश यूक्रेनी प्रस्ताव में तीन प्रमुख बातों का उल्लेख था - (1) यूक्रेन से रूसी सेना की तत्काल वापसी, (2) यूक्रेन में स्थायी और न्यायपूर्ण शांति, और (3) युद्ध अपराधों के लिए रूस की जवाबदेही। अमेरिका ने भी एक प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र महासभा में पेश किया, जिसमें रूस का जिक्र तक नहीं किया। अमेरिका के प्रस्ताव में न तो रूसी हमले का जिक्र था और न ही किसी तरह की निंदा की। इसमें बस दोनों देशों में हुए जानमाल के नुकसान पर शोक जाहिर किया गया। अमेरिका ने कहा कि वो लड़ाई को जल्द खत्म करके यूक्रेन और रूस के बीच स्थायी शांति की अपील करता है। 

डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका की रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर नीति में बदलाव आया। अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में यूक्रेन के प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया और यूक्रेन को दी जा रही सैन्य व वित्तीय सहायता पर पुनर्विचार कर रहा है। यह परिवर्तन यूक्रेन के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है। 

सादर, 
केशव राम सिंघल 
रूस-यूक्रेन युद्ध प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

विचारों की शक्ति - कल्पना से हकीकत तक

विचारों की शक्ति - कल्पना से हकीकत तक 
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इंग्लैंड के लेखक एम पी नियरी ने अपनी पुस्तक 'Free Your Mind' (अपना मस्तिष्क स्वतन्त्र करो) में एक वैज्ञानिक प्रयोग का जिक्र किया है, जिसमें बताया कि कुछ वैज्ञानिक विचार की शक्ति के बारे में कुछ लोगों के बीच बनाए दो समूहों में एक प्रयोग कर रहे थे, जिसमें एक समूह के लोग अपनी मांसपेशियों के निर्माण के लिए चार सप्ताह से व्यायाम कर रहे थे और दूसरे समूह के लोग इस अवधि के दौरान केवल व्यायाम करना सोच रहे थे। आश्चर्य की बात यह रही कि जिस समूह के लोग केवल व्यायाम करना सोच रहे थे, वे भी अपनी मांसपेशियों को 22 प्रतिशत बढ़ाने में कामयाब रहे।

है ना आश्चर्यजनक बात .... केवल विचार करने से .... मुझे भी याद आया। कुछ दिनों पूर्व जब मैं बीमार पढ़ गया था। मैं अवसाद में था और मैं सोच रहा था कि अब मेरे से कोई काम नहीं होगा, अब मैं बिस्तर पर पड़ जाऊंगा और वास्तव में ऐसा ही हुआ। मैं बीमार पड़ गया। कई दिनों तक मैं बिस्तर पर पड़ा रहा। एक दिन मेरा एक दोस्त मुझसे मिलने आया और उसने मुझसे कहा -"तुम कल तक ठीक हो जाओगे। यह बीमारी कुछ नहीं है। कुछ थकान थी, जो उतर चुकी है।" मैं विचार करने लगा - मैं पहले से बेहतर हूँ। कल तक ठीक हो जाऊँगा, जैसा मेरे दोस्त ने कहा। आश्चर्य मैं अगले दिन ठीक हो गया और बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। अपने विचारों को सकारात्मक रखें, वे आपके शब्द बनेंगे। आत्मविश्वास ही हमारी असली ताकत है। अच्छा सोचेंगे, तो अच्छा ही होगा।

एक कहानी मुझे याद आयी। एक बुजुर्ग महिला को किसी काम से पास के गाँव में जाना था। उस महिला ने अपना सामान एक गठरी में बांधा और पैदल ही चल पड़ी। एक तो बुजुर्ग और दूसरे रास्ते में धूप-गर्मी तेज होने के कारण गठरी के साथ पैदल चलने में उसे बहुत कठिनाई हो रही थी। वह महिला बहुत थक गयी थी। तभी उसे एक घुड़सवार आता दिखाई दिया। उसने घुड़सवार को रोका और पूछा कि कहाँ जा रहे हो। घुड़सवार ने बताया कि वह पास के गाँव जा रहा है। बुजुर्ग महिला ने घुड़सवार से कहा - भैया ! इस गठरी के साथ चलना मुश्किल हो रहा है। मेरी गठरी को तुम अपने घोड़े पर रखकर ले चलो। गाँव पहुँचकर मैं इसे तुमसे ले लूँगी। घुड़सवार नाराज होकर बोला - नाहक मेरा समय खराब किया। मैं क्यों तुम्हारी गठरी उठाकर ले जाऊँ? अपनी परेशानी से तुम खुद ही निपटो। ऐसा कहकर वह घुड़सवार आगे बढ़ गया, लेकिन कुछ दूर जाने पर उसके मन में विचार आया कि मैं गठरी ले लेता तो अच्छा ही रहता। अगर गाँव पहुंचने के बाद मैं उसकी गठरी वापस नहीं देता, तो वह महिला कौन सा मुझे पहचानती है? उसी समय बुजुर्ग महिला के मन में भी विचार आया - अच्छा हुआ, घुड़सवार मेरी गठरी लेकर नहीं गया। अगर गाँव पहुँचकर वह मेरी गठरी नहीं लौटाता तो मैं उसे कहाँ ढूंढती? मैं कौन सा उसे पहचानती हूँ। थोड़ी देर में ही उस घुड़सवार ने वापस आकर महिला से कहा - अम्मा, लाओ अपनी गठरी मुझे दे दो। मैं इसे घोड़े पर रख लेता हूँ। महिला ने घुड़सवार से कहा - कहीं तुम यह सोचकर तो वापस नहीं आए कि मेरी गठरी लेकर भाग जाओगे? ये सुनकर घुड़सवार घबराहट में बोला - नहीं तो, पर तुमने ऐसा क्यों सोचा। बुजुर्ग महिला ने कहा - भैया ! इस घटना से एक कीमती बात जो मैं समझ सकी वह यह है कि व्यक्ति के विचार दूसरों तक बहुत तीव्र गति से पहुँच जाते हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि यह सब मानव-मस्तिष्क के भीतर न्यूरोन्स के कारण होता है, जो हर समय काम करता है। न्यूरोन्स तंत्रिका कोशिकाएँ होती हैं जो हमारे मस्तिष्क में सूचनाएँ प्रसारित और आदेशित करती हैं। यह बेहद रोमांचित करने वाली बात है कि न्यूरोन्स हमारे शरीर की अन्य कोशिकाओं को विद्युतीय और रासायनिक संकेत प्रकाश गति से भेजते हैं। आश्चर्यजनक बात यह भी है कि हमारे शरीर में दस करोड़ न्यूरोन्स कोशिकाएं होती हैं, औसतन प्रत्येक न्यूरोन कोशिका के पाँच हजार कनेक्शंस होते हैं, जो कि एक नेटवर्क से जुड़े पाँच सौ खरब माइक्रोप्रोसेसर्स के बराबर होते हैं। इस प्रकार हमारा मस्तिष्क एक बहुत ही बढ़िया यंत्र है, कोई संदेह नहीं कि हमारी खोपड़ी के भीतर एक बेहतरीन प्राकृतिक संसाधन है। अपने आस-पास हम जो भी इंसान के द्वारा बनाई गई चीजे देख रहे हैं, वे सभी किसी न किसी के विचार थे। विचार ही है जो हमारी दुनिया को नया आकार देते है और बेहतर से और बेहतर बनाने की ओर बढ़ते हैं। 

विचारों की शक्ति केवल हमारी चेतना को ही नहीं बल्कि भौतिक वास्तविकता को भी प्रभावित कर सकती है। न्यूरोप्लास्टिसिटी (Neuroplasticity) पर हुए वैज्ञानिक अनुसंधान यह सिद्ध करते हैं कि मस्तिष्क की संरचना और कार्यप्रणाली को विचारों द्वारा बदला जा सकता है। न्यूरोप्लास्टिसिटी का अर्थ है कि हमारा मस्तिष्क लगातार नए अनुभवों और विचारों के आधार पर स्वयं को पुनः संरचित कर सकता है। अनेक शोध बताते हैं कि सकारात्मक सोच से न्यूरोन्स के बीच मजबूत कनेक्शन बनते हैं, जिससे निर्णय क्षमता, समस्या समाधान, और रचनात्मकता में वृद्धि होती है। डॉ. कैरल ड्वेक के शोध ने यह सिद्ध किया कि सकारात्मक मानसिकता रखने वाले व्यक्ति जीवन में अधिक सफलता प्राप्त करते हैं। सकारात्मक विचार मस्तिष्क में डोपामिन नामक रसायन का स्राव बढ़ाते हैं, जिससे व्यक्ति अधिक आत्मविश्वास महसूस करता है और कठिनाइयों का सामना करने की शक्ति प्राप्त करता है। 

हमने इस संसार में सफलता की अनेक कहानियाँ सुनी हैं, जिनके पीछे सकारात्मक सोच एक महत्वपूर्ण कारण रहा है। जब थॉमस एडिसन बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो कई बार असफल होने के बावजूद उन्होंने नकारात्मक विचारों को खुद पर हावी नहीं होने दिया और अंततः वे सफलता प्राप्त कर सके। दृष्टिहीन और श्रवणहीन होते हुए भी हेलेन केलर ने शिक्षा प्राप्त की और एक सफल लेखिका एवं समाज सुधारक बनीं। उन्होंने अपनी परिस्थितियों को बाधा न मानते हुए अपने विचारों की शक्ति से असाधारण उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। जन्म से बिना हाथ-पैर के होने के बावजूद निक वुजिसिक ने अपनी कल्पना शक्ति और सकारात्मक सोच के बल पर एक सफल प्रेरक वक्ता (motivational speaker) और लेखक के रूप में पहचान बनाई।

आओ ! हम अपने मस्तिष्क का सही उपयोग कर विचार शक्ति का दोहन करने की कल्पना करें।

यह निर्विवाद रूप से और अनेक अनुभवों से यह प्रमाणित हो चुका है कि विचार सिर्फ चेतना को ही नहीं, वरन पदार्थ को भी प्रभावित करते हैं। उसे एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित कर देना, यह विचार शक्ति की ही सामर्थ्य है। इस अद्भुत क्षमता को ध्यान में रखते हुए हमें विचार शक्ति के सदुपयोग के बारे में सोचना चाहिए। विचार शक्ति आपकी ही शक्ति है। यह अत्यंत शक्तिशाली है।

वास्तव में हमारा मस्तिष्क संसार के किसी भी सुपर कम्प्यूटर से अधिक शक्तिशाली है। एक सैकंड मस्तिष्क गतिविधि को मापने के लिए एक बड़े सुपर कम्प्यूटर ने चालीस मिनट का समय लिया। कल्पना (विचार) शक्ति की सांसारिक संभावित सीमाएं अवश्य होंगी।

ज़रा सोचिए - उन सभी चीजों के बारे में जो हम अपनी इच्छा शक्ति से पा सकते हैं !

हमारा कल्पना मस्तिष्क हमारे प्राकृतिक उपहारों, हमारे कौशल, हमारी प्रतिभा और हमारे मस्तिष्क की शक्ति को गजब रूप से बढ़ा सकता है। इसके अलावा अत्यंत कठिन परिस्थितियों में भी यह बहुत कुछ कर सकता है। हमें विश्वास करना चाहिए और हमें अपने जीवन की कठिनाईयों से प्रेरणा लेनी चाहिए, ताकि हम अपने जीवन में आई कथित कठिन सीमाओं के बाहर भी जीना सीख सकें। हमारी विचार शक्ति हमारी क्षमताओं को बढ़ाने में हमारी सहायता कर सकती है।

अल्बर्ट आईन्स्टीन ने कहा था, "कल्पना सब कुछ है। यह जीवन के आने वाले आकर्षण का पूर्वावलोकन है।" क्यों न हम अपनी कल्पना और विचारों का उपयोग अपने सपनों को साकार करने में करें। हमारा शरीर विचारों से प्रभावित होता है। अच्छे विचारों का शरीर पर अच्छा और बुरे विचारों का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति का स्वस्थ-निरोग रहना अथवा रोगग्रस्त हो जाना उत्कृष्ट या निकृष्ट चिंतन पर अवलम्बित होता है। विचार मनुष्य की सबसे अद्भुत शक्ति है। क्यों न हम अपने सपनों को सच करने के लिए अपनी कल्पना का उपयोग करें?

शुभकामनाओं सहित,
केशव राम सिंघल

शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

सस्ते चैटजीपीटी-4 एक्सटेंशन - सुविधा या बड़ा धोखा?

सस्ते चैटजीपीटी-4 एक्सटेंशन - सुविधा या बड़ा धोखा?

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मैं चैटजीपीटी का एक संतुष्ट उपयोगकर्ता हूँ और इसकी निःशुल्क सेवाओं का लाभ लेता हूँ। हाल ही में, मैंने एक विज्ञापन देखा जिसमें आधिकारिक कीमत से कम कीमत में चैटजीपीटी-4 प्रीमियम खाता देने का दावा किया गया, लेकिन इसकी लॉगिन विधि ‘एक्सटेंशन के माध्यम से’ बताई गई। इससे मेरे मन में दो सवाल आए – यह एक्सटेंशन लॉगिन क्या है और क्या इसका उपयोग सुरक्षित है? चैटजीपीटी से मिले इनपुट्स के आधार पर, इस आलेख में मैं इन प्रश्नों के उत्तर साझा कर रहा हूँ ताकि अन्य लोग भी सतर्क रहें।


मेरा पहला सवाल - एक्सटेंशन लॉगिन क्या होता है और यह कैसे काम करता है? इस प्रश्न के उत्तर में मुझे पता चला कि "एक्सटेंशन के ज़रिए लॉगिन" विधि में आम तौर पर ब्राउज़र एक्सटेंशन या थर्ड-पार्टी सॉफ़्टवेयर इंस्टॉल करना शामिल होता है, जो बिना आधिकारिक सदस्यता के चैटजीपीटी-4 तक पहुँच प्रदान करने का दावा करता है। इस तरह का एक्सटेंशन अक्सर मध्यस्थ के रूप में कार्य करते हैं, मौजूदा प्रीमियम खाते में लॉग इन करते हैं और कई उपयोगकर्ताओं के साथ पहुँच साझा करते हैं। 


मेरा दूसरा सवाल - क्या यह एक्सटेंशन विधि सुरक्षित है? नहीं, यह सुरक्षित नहीं है। इसके कई गंभीर जोखिम हैं:


(1) सुरक्षा जोखिम

✔️ यह आपकी व्यक्तिगत जानकारी और लॉगिन क्रेडेंशियल्स चुरा सकता है।

✔️ कुछ एक्सटेंशन आपकी ब्राउज़िंग गतिविधियों को ट्रैक कर सकते हैं।

✔️ इनमें से कई को ऐसे अनुमतियाँ चाहिए जो आपकी सुरक्षा के लिए हानिकारक हो सकती हैं।


(2) ओपनएआई (OpenAI) की सेवा शर्तों का उल्लंघन

✔️ ओपनएआई ऐसे किसी भी तृतीय-पक्ष पुनर्विक्रेता को अधिकृत नहीं करता।

✔️ यदि आप इस तरह की सेवा का उपयोग करते हैं, तो आपका अकाउंट स्थायी रूप से प्रतिबंधित (ban) किया जा सकता है।


(3) घोटाले और धोखाधड़ी

✔️ कई बार ये सेवाएँ कुछ दिनों या हफ्तों में बंद हो जाती हैं और इस तरह के उपयोगकर्ता को कोई रिफंड नहीं मिलता।

✔️ इस तरह के उपयोगकर्ता के डिवाइस पर वायरस, मैलवेयर या अन्य हानिकारक सॉफ़्टवेयर आ सकते हैं।


सुरक्षित विकल्प क्या हैं?


✅ ऐसे तृतीय-पक्ष पुनर्विक्रेताओं के ऑफ़र से बचें। यदि आपको जीपीटी-4 की ज़रूरत है, तो ओपनएआई की आधिकारिक वेबसाइट से ही चैटजीपीटी आधिकारिक मूल्य पर खरीदें।


✅ अगर आप चैटजीपीटी-4 का मुफ्त में उपयोग करना चाहते हैं, तो माइक्रोसॉफ्ट कोपायलट का विकल्प आज़माएँ, जो GPT-4 का निःशुल्क एक्सेस देता है।


✅ गूगल जैमिनी और क्लाउड एआई भी मुफ्त विकल्प हैं।


अंतिम विचार: सतर्क रहें! 


एक्सटेंशन आधारित सस्ते ऑफर लुभावने लग सकते हैं, लेकिन वे उपयोगकर्ता की सुरक्षा और गोपनीयता के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकते हैं। अगर आप चैटजीपीटी-4 का उपयोग करना चाहते हैं, तो सिर्फ ओपनएआई की आधिकारिक साइट से ही सदस्यता लें।


अगर निःशुल्क विकल्प की तलाश है, तो निःशुल्क चैटजीपीटी-3.5, माइक्रोसॉफ्ट कोपायलट और अन्य विश्वसनीय एआई सेवाओं का उपयोग करें। 


सावधान रहें, सुरक्षित रहें! सिर्फ थोड़े पैसों की बचत के चक्कर में अपनी सुरक्षा से समझौता न करें।  


सादर, 

केशव राम सिंघल 

 

शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

भारत में कृत्रिम बुद्धिमता (एआई) का उपयोग - अवसर और चुनौतियाँ

भारत में कृत्रिम बुद्धिमता (एआई) का उपयोग - अवसर और चुनौतियाँ

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कृत्रिम बुद्धिमता, जिसे संक्षिप्त में एआई कहा जाता है, उसके बारे में बहुत चर्चा है। मैंने भारत के वित्तमंत्री द्वारा जारी 2024-25 का आर्थिक सर्वेक्षण देखा तो पाया कि वह भी इससे अछूता नहीं है। आर्थिक सर्वेक्षण में मानव-केंद्रित स्वचालन के भविष्य पर चर्चा की गई है। यह प्रश्न उठाता है कि कृत्रिम बुद्धिमता (Artificial Intelligence - AI) युग में श्रम व्यवस्था संकट में है या उत्प्रेरक है। यह निम्न बातें बताता है –

 

(1)  श्रम-समृद्ध भारत में एआई का उपयोग अवसर और चुनौतियाँ दोनों प्रस्तुत करता है।

 

(2)  अतीत में हुई प्रौद्योगिक क्रांतियों का सावधानीपूर्वक प्रबंधन नहीं किए जाने की स्थिति में वे दीर्घकालीन प्रतिकूल प्रभावों सहित कष्टकारी रही हैं।

 

(3)  भारत के श्रम बाजारों के जोखिमों को कम करने के लिए मजबूत सक्षम, बीमाकरण और प्रबन्धकारी संस्थानों की आवश्यकता है।

 

(4)  लम्बे समयकाल तक अनुकूलित सावधानीपूर्ण परिनियोजन तयह सुनिश्चित कर सकता है कि एआई श्रम को बढ़ावा दे और व्यापकता आधारित सामाजिक हितलाभ प्रदान करे।

 

(5)  सरकार, निजी क्षेत्र और अकादमिक जगत के बीच समन्वित प्रयासों की आवश्यकता है ताकि भविष्य में काम का ऐसा माहौल बने जिसमें एआई 'श्रम प्रतिस्थापक' के बजाए 'श्रम संवर्धक' बन सके।

 

अवसर

 

यदि हम अवसरों की बात करें तो एआई के उपयोग से हमें निम्न अवसर मिल सकते हैं -

 

- एआई द्वारा उद्योगों में प्रक्रियाओं का स्वचालन (automation) तेज हो सकता है, जिससे विभिन्न उद्योगों में उत्पादकता में सुधार होगा।

 

- एआई आधारित स्टार्टअप और तकनीकी परियोजनाओं से नए प्रकार के रोजगार सृजित हो सकते हैं।

 

- कृषि के क्षेत्र में एआई आधारित सटीक खेती से कृषि उत्पाद में बढ़ोतरी की जा सकती है।

 

- एआई के उपयोग से स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार किया जा सकता है और स्वास्थ्य सेवाओं में रोग निदान बेहतर हो सकता है।

 

- एआई शिक्षण पद्धतियों को अनुकूलित कर सकता है, जिससे शिक्षण के और कुशल तरीके विकसित हो सकेंगे।

 

यदि हम औद्योगिक क्रांति का इतिहास देखें तो हमें पता चलता है कि पूर्व में हुई औद्योगिक क्रांतियों ने उत्पादन क्षमता को बढ़ाया, लेकिन उचित प्रबंधन न होने के कारण मजदूर वर्ग का शोषण हुआ और व्यापक सामाजिक असमानता बढ़ी। स्वचालन के कारण कई परंपरागत नौकरियाँ समाप्त हो गईं, जिससे रोजगार संकट पैदा हुआ। तकनीकी नवाचार का लाभ केवल कुछ विकसित देशों तक सीमित रहा, जिससे विकासशील देशों में असमानता और बढ़ी। प्रौद्योगिक क्रांतियों के कारण प्राकृतिक संसाधनों का बहुत अधिक दोहन हुआ, जिससे पर्यावरणीय संकट बढ़ा। ये सब बातें हमें सीख देती हैं कि औद्योगिक क्रांतियों का प्रबंधन समावेशी, संवेदनशील और दीर्घकालिक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए, ताकि मानव समाज उसका अधिक से अधिक लाभ ले सके।

 

जैसा कि ऊपर बताया गया है कि श्रम बाजारों के जोखिमों को कम करने के लिए मजबूत सक्षम, बीमाकरण और प्रबन्धकारी संस्थानों की आवश्यकता है। इसका कारण है कि एआई और स्वचालन से श्रमिकों के विस्थापन का खतरा बढ़ सकता है, जिससे श्रम बाजार में अस्थिरता आ सकती है। रोजगार और आजीविका की सुरक्षा के लिए बीमाकरण योजनाएँ आवश्यक हैं, ताकि आर्थिक अस्थिरता के समय श्रमिकों को सहायता मिल सके। श्रमिकों को नए कौशलों में प्रशिक्षित करने के लिए प्रबन्धकारी संस्थानों की आवश्यकता है। नियोक्ता संस्थान भी मजबूत हों, जो श्रमिकों को न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य बीमा, और पेंशन जैसी सेवाएँ प्रदान कर सकें।

 

हमें यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि एआई के सावधानीपूर्ण परिनियोजन से श्रम को बढ़ावा कैसे मिल सकता है और सामाजिक हितलाभ कैसे प्राप्त हो सकता है? यदि श्रम और एआई का प्रभावी संतुलन किया जाए तो हम यह प्राप्त कर सकते हैं। एआई को सहायक उपकरण के रूप में विकसित किया जाना चाहिए, ताकि यह श्रम प्रतिस्थापन के बजाय श्रमिकों की दक्षता और उत्पादकता बढ़ाए। सामाजिक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए श्रमिकों के लिए न्यूनतम आय गारंटी और रोजगार सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। इस सम्बन्ध में दीर्घकालिक योजना के तहत नीतिगत स्तर पर एआई को सामाजिक और आर्थिक विकास का एक उपकरण बनाया जाए। शिक्षा और शोध के क्षेत्र में एआई अनुसंधान को मानव-केंद्रित रखा जाए, जिससे यह समाज के सभी वर्गों के लिए लाभकारी हो।

 

सरकार, निजी क्षेत्र और अकादमिक जगत के समन्वित प्रयासों से एआई को 'श्रम प्रतिस्थापक' के बजाय 'श्रम संवर्धक' बनाया जा सकता है। इसमें सरकार का निम्न योगदान हो सकता है –

 

- एआई नीतियों को श्रम हितैषी बनाना।

 

- कौशल विकास कार्यक्रमों को प्रोत्साहन देना।

 

- रोजगार गारंटी योजनाओं को सुदृढ़ करना।

 

निजी क्षेत्र का योगदान निम्न हो सकता है –

 

- एआई  तकनीकों का उपयोग कर्मचारियों के साथ सहयोगात्मक कार्य के लिए करना।

 

- सीएसआर के माध्यम से कौशल विकास और शिक्षा में निवेश करना।

 

अकादमिक जगत इस ओर निम्न योगदान दे सकता है –

 

- एआई पर अनुसंधान और विकास के माध्यम से मानव-केंद्रित समाधान प्रदान करना।

 

- समाज के लिए अनुकूल एआई मॉडल विकसित करना।

 

चुनौतियाँ

 

एआई के उपयोग से बहुत सी चुनौतियाँ भी हमारे सामने हैं, जिनमें कुछ निम्न हो सकती हैं -

 

- एआई के उपयोग से कम कुशल श्रमिकों के लिए रोजगार के अवसर कम हो सकते हैं, जिससे समाज में असमानता बढ़ सकती है। एआई के प्रायोगिक मॉडल को व्यावसायिक रूप से सफल और किफायती बनाना एक चुनौती है।

 

- स्वचालित प्रणालियों में त्रुटियाँ होने पर परिणाम गंभीर हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य सेवा में गलत निदान।

 

- उद्योग जगत में प्रक्रियाओं के स्वचालन के कारण कई पारंपरिक नौकरियाँ समाप्त हो सकती हैं।

 

- एआई का उपयोग जानने के लिए तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता है, जिसके लिए श्रमिकों को नई तकनीकों के लिए प्रशिक्षित करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

 

-  एआई के उपयोग से डाटा गोपनीयता और नैतिकता संबंधी समस्याएँ बढ़ सकती हैं।

 

- एआई के लिए बड़े पैमाने पर डाटा केंद्र, क्लीनिंग पाइपलाइंस और अन्य संसाधनों की आवश्यकता है, जो महंगे हैं।

 

- एआई मॉडल ऊर्जा और संसाधनों की खपत करते हैं। इनके निर्माण के लिए दुर्लभ खनिजों पर निर्भरता को कम करने के लिए संधारणीय (sustainable) नवाचार आवश्यक हैं।

 

निष्कर्ष

 

कृत्रिम बुद्धिमत्ता भारत के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर है, लेकिन इसके प्रभाव को सकारात्मक बनाए रखने के लिए सावधानीपूर्वक रणनीति और समन्वित प्रयासों की आवश्यकता है। यह आवश्यक है कि एआई श्रमिकों के लिए एक पूरक उपकरण बने, न कि प्रतिस्थापन। शिक्षा, कौशल विकास, और सामाजिक सुरक्षा पर निवेश के साथ एआई का परिनियोजन समाज में समानता और समावेशिता सुनिश्चित कर सकता है। एआई को केवल तकनीकी नवाचार के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक विकास का साधन माना जाना चाहिए।

 

सादर,

केशव राम सिंघल

प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe