दास्ताँ – 5 – गांधारी का प्रण
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गांधार नरेश सुबल थे अति ज्ञानी,
राज्य समृद्ध और राजा था दानी।
पुत्री एक जिसका रूप अनोखा,
गांधारी नाम, सुशील, सलोना।
भविष्यवक्ता गणुधर ने जन्मपत्री खोली,
भविष्य की गणनाएँ उसने यूँ बोलीं—
राजकुमारी का होगा उच्च विवाह,
तप की होगी उसमें असीम चाह।
सौभाग्य और समर्पण भरपूर होगा,
नेत्रों में ज्योति, पर तिमिर बसेगा।
महलों में रह वह साधना करेगी,
त्याग की मूर्ति वह हरदम रहेगी।
दीर्घायु होगी, समर्पण होगा अनूठा,
सम्पन्नता संग होगी त्याग की रूपा।
यह सुन राजा सुबल कुछ घबराए,
कुछ पल ठहरे, फिर हौले मुस्काए,
भगवान की लीला भला कौन जाने,
मन समझाया, शुभ होगा यही माने।
राजमहल में रहकर शिक्षा पाई,
धर्म की गूढ़ता गांधारी में समाई।
सखियों संग राजकुमारी सैर को जाती,
मंदिर में आराधना कर शीश नवाती।
उसे लगती थी आराधना प्यारी,
तपस्विनी सा रूप वह थी गुणकारी।
सौंदर्य अद्वितीय, निर्मल और दिव्य,
धर्मनिष्ठा संग स्वभाव रूप भी शुभ्र।
हस्तिनापुर में,
भीष्म और विदुर विचार में डूबे,
धृतराष्ट्र विवाह हेतु चिंतनशील हुए।
माँ अंबिका चिंता में घुली जातीं,
वंश वृद्धि की आशा लगातीं।
धृतराष्ट्र बोले, "मैं हूँ नेत्रहीन,
कैसे करूँ किसी का जीवन संगीन?
न बंधन चाहूँ, न संग किसी का,
किसे दूँ सहारा, कौन बने दिशा?"
पर अंबिका ने ठाना संकल्प,
राजवंश का यही एक विकल्प।
"राजा का विवाह अनिवार्य रहेगा,
वंशज के बिना राजकुल अधूरा रहेगा।"
उधर गांधारी ने शिव चरणों में शीश नवाया,
उसके मन में यह अद्भुत वरदान समाया -
"हे महादेव! कृपा बरसाओ,
सौ पुत्रों का सुख दिखलाओ।"
तभी सखी दौड़ी आई, ख़ुशियाँ संग लाई,
"राजकुमारी, आओ, चलो, बुलावा आया।
आया है अभी हस्तिनापुर दूत का प्रस्ताव,
कुरु राजवंश से जुड़ने का मिला है दाँव।"
राजकुमारी सकुचाई,मौन मुस्काई,
ह्रदय में उठी भावों की अंगड़ाई।
गांधार नरेश ने किया आर्यावर्त दूत का सत्कार,
भीष्म ने सराहा गांधारी का रूप और संस्कार।
गांधारी ने चाही प्रियतम की एक झलक,
उसके मन में थी यही एक मात्र ललक।
पर सुना, धृतराष्ट्र यहाँ नहीं आए,
यह सुन कहीं सपने बिखर न जाएँ।
एक ओर गांधार, छोटा सा राज्य,
दूजा समृद्ध आर्यवर्त का साम्राज्य।
खुशी खुशी सुबल ने किया प्रस्ताव स्वीकार,
धृतराष्ट्र संग गांधारी का भावी जीवन संसार।
गांधारी की मौन उदासी देख,
प्रिय दासी आई बहुत समीप,
"अब तुम्हारा सपना साकार हुआ,
हस्तिनापुर की तुम शान बनीं।"
गांधारी के मन में उठे घने सवाल,
धृतराष्ट्र का स्वभाव रूप कैसा होगा?
पर करुवंश के राजा अविवाहित रहे,
तो वंशज बिना राज्य कैसे चलेगा?
उधर भीष्म भी सोच में पड़े थे,
क्या सत्य छिपाना उचित है?
गांधारी को क्या पूरा सच बतलाऊँ?
या कुरुवंश की नाव सुरक्षित बचाऊँ?
सत्य आज नहीं तो कल खुलेगा,
भविष्य सब कुछ सह लेगा।
हस्तिनापुर को उत्तराधिकारी चाहिए,
राजधर्म में मौन ही श्रेयस्कर रहेगा।
गांधारी हस्तिनापुर आ पहुँची है,
विवाह भी संपन्न हो चुका है।
असत्य से पर्दा उठ चुका है,
गांधारी सत्य जान चुकी है।
विवाह में जयकार, मंत्र स्वरों की गूंज,
चारों ओर हर्ष, सुगन्धित फूलों की धूम।
गांधारी मन ही मन व्यथित रही,
पति संग सहानुभूति में निमग्न रही।
लिया प्रण पति संग निभाने का,
जीवन भर आंखों पर पट्टी बाँधने का।
अब वह भी देखेगी नहीं यह संसार,
पति संग निभाएगी हर संस्कार।
प्रजा ने सुना तो दर्शन को हुई आतुर,
ऐसी पतिव्रता अद्भुत, अद्वितीय।
समर्पण की पराकाष्ठा, नारी की सूरत,
गांधारी का जीवन बना त्याग की मूरत।
प्रसंगवश
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गांधारी धार्मिक और कर्तव्यनिष्ठ थीं। उन्होंने अपने पुत्रों से अत्यधिक प्रेम किया, किंतु दुर्योधन के प्रति उनके मोह ने उन्हें कई बार धर्मसंकट में डाल दिया। महाभारत युद्ध के बाद उन्होंने धृतराष्ट्र के साथ वन में अध्यात्म और साधना का जीवन व्यतीत किया। श्रीकृष्ण को उन्होंने अपने पुत्रों की मृत्यु के लिए उत्तरदायी माना और उनके प्रति क्रोध भी प्रकट किया। किंतु गांधारी का सबसे महान त्याग का प्रण उनकी आँखों की पट्टी थी, जिसे उन्होंने जीवनभर निभाया।
सादर,
केशव राम सिंघल
प्रतीकात्मक चित्र गांधार महल - साभार NightCafe